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Tuesday, 31 May 2016

POPULAR SAD LOVE GHAZALS IN HINDI

ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.

लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.

मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,

आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.

शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके

तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.

उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,

'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.

सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को

कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता

कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो

हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता

जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता

हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता

हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में

सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता

कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे

हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता...

Monday, 30 May 2016

POPULAR SAD LOVE GHAZALS IN HINDI

इस शहर-ए-खराबी में गम-ए-इश्क के मारे

ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे

ये हंसता हुआ लिखना ये पुरनूर सितारे

ताबिंदा-ओ-पा_इन्दा हैं ज़र्रों के सहारे

हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे

अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे

हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम

हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे

कुछ और भी हैं काम हमें ए गम-ए-जानां

कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

Sunday, 29 May 2016

A HINDI SAD LOVE GHAZAL

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
 
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं| 

बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
 
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं| 

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
 
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं| 

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए, 

आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं| 

वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,
 
उस आवारा दीवाने को 'ज़लिब'-'ज़लिब' कहते हैं

Friday, 27 May 2016

BASHIR BADR FAMOUS GAZAL

आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
                                       Bashir Badr

Wednesday, 25 May 2016

MUNAWWAR RANA SHAYARI

माँ | मुन्नवर राना के अश़आर

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी ख़फ़ा नहीं होती
#
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
#
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना
#
ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया
#
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई
#
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
#
अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
#
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
#
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ  सज़दे में रहती है।
#
'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

Tuesday, 24 May 2016

WASEEM BARELVI FAMOUS GAZAL

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमां  से  कोई  फ़ैसला उतरता है

तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद  कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

                             वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

Monday, 23 May 2016

SARVESHWAR DAYAL SAXENA

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं 
              सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwar Dayal Saxena)

Sunday, 22 May 2016

DIN KUCH AISE GUJARTA HAI KOI

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई ।
                                - गुलजार

Friday, 20 May 2016

MERI THAKAAN UTAR JATI HAI

हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से
मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है ।
कोई ठोकर लगी अचानक
जब-जब चला सावधानी से
पर बेहोशी में मंजिल तक
जा पहुँचा हूँ आसानी से
रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से
मैंने अक्सर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है ।
प्यासे अधरों के बिन परसे,
पुण्य नहीं मिलता पानी को
याचक का आशीष लिये बिन
स्वर्ग नहीं मिलता दानी को
खाली पात्र किसी का अपनी प्यास बुझा कर भर देने से
मैंने अक्सर यह देखा है मेरी गागर भर जाती है ।
लालच दिया मुक्ति का जिसने
वह ईश्वर पूजना नहीं है
बन कर वेदमंत्र-सा मुझको
मंदिर में गूँजना नहीं है
संकटग्रस्त किसी नाविक को निज पतवार थमा देने से
मैंने अक्सर यह देखा है मेरी नौका तर जाती है ।
                                   - रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

Wednesday, 18 May 2016

DUSHYANT KUMAR( AAG JALNI CHAHIYE)

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
                                 - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

Tuesday, 17 May 2016

MIRZA GHALIB FAMOUS SHAYARI

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले
मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले
हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले
                                             - मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)
--
चश्म-ऐ-तर - wet eyes
खुल्द - Paradise
कूचे - street
कामत - stature
दराजी - length
तुर्रा - ornamental tassel worn in the turban
पेच-ओ-खम - curls in the hair
मनसूब - association
बादा-आशामी - having to do with drinks
तव्वको - expectation
खस्तगी - injury
खस्ता - broken/sick/injured
तेग - sword
सितम - cruelity
क़ाबे - House Of Allah In Mecca
वाइज़ - preacher

Friday, 6 May 2016

HINDI POMES DINESH SINGH

लो वही हुआ
लो वही हुआ जिसका था डर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      सूरज की किरन दहाड़ गई,
      गरमी हर देह उघाड़ गई,
      उठ गया बवंडर, धूल हवा में -
      अपना झंडा गाड़ गई,
गौरइया हाँफ रही डर कर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      हर ओर उमस के चर्चे हैं,
      बिजली पंखों के खर्चे हैं,
      बूढ़े महुए के हाथों से,
      उड़ रहे हवा में पर्चे हैं,
"चलना साथी लू से बच कर".
ना रही नदी, ना रही लहर।

      संकल्प हिमालय सा गलता,
      सारा दिन भट्ठी सा जलता,
      मन भरे हुए, सब डरे हुए,
      किस की हिम्मत, बाहर हिलता,
है खड़ा सूर्य सर के ऊपर,
ना रही नदी ना रही लहर।

      बोझिल रातों के मध्य पहर,
      छपरी से चन्द्रकिरण छनकर,
      लिख रही नया नारा कोई,
      इन तपी हुई दीवारों पर,
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर,
ना रही नदी ना रही लहर।
- दिनेश सिंह

Thursday, 5 May 2016

MADHUBAALA HARIVANSH RAI BACHCHAN

1

मैं मधुबाला मधुशाला की


मैं मधुशाला की मधुबाला!


मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,


मधु के धट मुझपर बलिहारी,


प्यालों की मैं सुषमा सारी,


मेरा रुख देखा करती है


मधु-प्यासे नयनों की माला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

2

इस नीले अंचल की छाया


में जग-ज्वाला का झुलसाया


आकर शीतल करता काया


मधु-मरहम का मैं लेपन कर


अच्छा करती उर का छाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

3

मधुघट ले जब करती नर्तन,


मेरे नूपुर के छम-छनन


में लय होता जग का क्रंदन,


झूमा करता मानव जीवन


का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

4

मैं इस आँगन की आकर्षण


मधु से सिंचित मेरी चितवन,


मेरी वाणी में मधु के कण


मदमत्त बनाया मैं करती


यश लूटा करती मधुशाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

5

था एक समय, थी मधुशाला,


था मिट्टी का घट, था प्याला


थी, किन्तु, नहीं साकीबाला,


था बैठा ठाला विक्रेता


दे बंद कपाटों पर ताला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

6

तब इस घर में था तम छाया


था भय छाया, था भ्रम छाया,


था मातम छाया, गम छाया,


ऊषा का दीप लिए सर पर,


मैं आई करती उजियाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

7

सोने की मधुशाना चमकी


माणित द्युति से मदिरा दमकी,


मधुगंध दिशाओं में चमकी


चल पड़ा लिए कर में प्याला


प्रत्येक सुरा पीनेवाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

8

थे मदिरा के मृत-मूक घड़े


थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,


थे जड़वत् प्याले भूमि पड़े,


जादू के हाथों से छूकर


मैंने इनमें जीवन डाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

9

मुझको छूकर मधुघट छलके,


प्याले मधु पीने को ललके 


मालिक जागा मलकर पलकें,


अँगड़ाई लेकर उठ बैठी


चिर सुप्त विमूर्च्छित मधुशाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

10

प्यासे आए, मैंने आँका,


वातायन से मैंने झाँका


पीनेवालों का दल बाँका,


उत्कंठित स्वर से बोल उठा


कर दे पागल, भर दे प्याला!'


मैं मधुशाला की मधुबाला!

11

खुल द्वार गए मदिरालय के,


नारे लगते मेरी जय के


मिट चिह्न गए चिंता भय के,


हर ओर मचा है शोर यही,


ला-ला मदिरा ला-ला'!


मैं मधुशाला की मधुबाला!

12

हर एक तृप्ति का दास यहाँ,


पर एक बात है खास यहाँ,


पीने से बढ़ती प्यास यहाँ


सौभाग्य मगर मेरा देखो,


देने से बढ़ती है हाला!


मैं मधुशाला की मधुबाला!

13

चाहे जितना मैं दूँ हाला


चाहे जितना तू पी प्याला


चाहे जितना बन मतवाला,


सुन, भेद बताती हूँ अन्तिम,


यह शांत नही होगी ज्वाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

14

मधु कौन यहाँ पीने आता


है किसका प्यालों से नाता,


जग देख मुझे है मदमाता,


जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर


तनती मैं स्वप्नों का जाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

15

यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला


यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,


स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,


स्वप्नों की दुनिया में भूला 


फिरता मानव भोलाभाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला! 


                                                                                         Harivansh Rai Bachchan