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Thursday, 25 August 2016

KABULIWALA HINDI SHORT STORY

काबुलीवाला

मेरी पांच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डांट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता, मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।

सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया-''बाबूजी! रामदयाल दरबान कल 'काक' को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?''

विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- ''बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुंह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।''

इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, बाबूजी, मां तुम्हारी कौन लगती है?''

मन-ही-मन में मैंने कहा साली और फिर बोला- ''मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।''

तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ''काबुल वाला, ओ काबुल वाला।''

मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बांधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाये, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियां लिये, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए वह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवां अध्‍याय आज अधूरा रह जायेगा।

किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्योंही काबुली ने हंसते हुए उसकी ओर मुंह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्योंही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहां छिप गई? उसके छोटे से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूंढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्ची निकल सकती हैं।

इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।

कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।

अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- ''बाबूजी, आपकी बच्ची कहां गई?''

मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देनी चाहीं, पर उसने न लीं, और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था? देखूं तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठी हुई काबुली से हंस-हंसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पांच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा- ''इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना?''कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली?

कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।

मिनी की मां एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिये डांट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी- ''तूने यह अठन्नी पाई कहां से, बता?''

मिनी ने कहा- ''काबुल वाले ने दी है।''

''काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?''

मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा-''मैंने मांगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।''

मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।

मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।

देखा कि इस नई मित्रता में बंधी हुई बातें और हंसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हंसती हुई पूछती- ''काबुल वाला और काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता- ''हां बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हंसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता-''तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?''

हमारे देश की लड़कियां जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिये बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुध्द था। उल्टे वह रहमत से ही पूछती- ''तुम ससुराल जाओगे?''

रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूंसा तानकर कहता- ''हम ससुर को मारेगा।''

सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूं, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूं, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूं। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊंचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊंटों की कतार जा रही है। ऊंचे-ऊंचे साफे बांधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊंट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

मिनी की मां बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, सांप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- ''क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?'' इत्यादि।

मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती,अत: मिनी की मां के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, लेकिन फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षडयंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सेवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूं तो वह संध्या को हाजिर है। अंधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।

लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी 'ओ काबुल वाला' पुकारती हुई हंसती-हंसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।

एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।

देखूं तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बांधे लिये जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाही बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा- ''क्या बात है?''

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपये उसकी ओर बाकी थे,जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।

रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ''काबुल वाला! ओ काबुल वाला!'' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा- ''तुम ससुराल जाओगे।''

रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''हां, वहीं तो जा रहा हूं।''

रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हंसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ''ससुर को मारता, पर क्या करूं,हाथ बंधे हुए हैं।''

छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।

और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियां जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।

कितने ही वर्ष बीत गये? वर्षों बाद आज फिर एक शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जायेगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी मां-बाप के घर में अंधेरा करके ससुराल चली जायेगी।

सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।

हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।

सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का तांता बंधा हुआ है। आंगन में बांसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाये जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की तो कोई गिनती ही नहीं है।

मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

मैंने पूछा-''क्यों रहमत, कब आये?''

उसने कहा-''कल शाम को जेल से छूटा हूं।''

सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आंखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया? मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहां से टल जाये तो अच्छा हो।

मैंने उससे कहा- ''आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।''

मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला- ''क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?''

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुल वाला, ओ काबुल वाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आयेगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहां तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से मांग-तांगकर लेता आया था? उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।

मैंने कहा- ''आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी?''

मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊं, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।

वह पास आकर बोला- ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजियेगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा- ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूं। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आंखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूं। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूं। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालांकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हंसते हुए बोला- ''लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?''

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुंह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जबकि रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन मे एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी सांस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पायेगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ''रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पायेगी।''

रहमत को रुपये देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छांटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब-कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है, कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

                                                                                                                                 रविन्द्रनाथ टैगोर

Friday, 19 August 2016

HINDI SHAYARI IN HINDI FONT JAN NISAR AKHTAR

जाँ निसार अख्‍तर
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आँखों में जो भर लोगेतो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदाये रिसालेये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

 

सुबह की आस

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छंट जाती है
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है
आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है
हाँ ख़बरदार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है
                     Jan Nisar Akhtar

Wednesday, 17 August 2016

BEST SHAYARI IN HINDI BY NAZEER AKBARABAADI

डरो बाबा
बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥

व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
                                                               नज़ीर अकबराबादी

Monday, 15 August 2016

HINDI POMES BY BHAGVATI CHARAN VERMA

पतझड़ के पीले पत्तों ने 

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !
                                          भगवतीचरण वर्मा

Wednesday, 10 August 2016

URDU SHAYARI IN HINDI BY KHUMAR BARABANKAVI

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमारआप काफ़िर हुए जा रहे हैं  

ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
कहाँ है ऐ ग़मे-जानाँ! कहाँ है

इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है

ख़ुदा महफ़ूज़ रखे आफ़तों से
कई दिन से तबीयत शादमाँ है

वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दासताँ है

ये माना ज़िन्दगी फ़ानी है लेकिन
अगर आ जाए जीनाजाविदाँ है

सलामे-आख़िर अहले-अंजुमन को
'ख़ुमारअब ख़त्म अपनी दास्ताँ है

हिज्र की शब है और उजाला है

हिज्र की शब है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन ज़िन्दगी लेकिन
ग़मगुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मज़बूर-ओ-नामुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़  की परेशानी
आशियाँ  ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़
एहतरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है

शेर नज़्में शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें मुस्कुराई हैं क्या-क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है "ख़ुमार"
और चारों तरफ उजाला है
                ख़ुमार बाराबंकवी

BEAUTIFUL SHAYARI

निगाहो दिल का अफसाना
निगाहो दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया सहर या वक्त-ए-शाम आया ।।
ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकीं दिल का मुकाम आया ।
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बाला-ए-बाम आया ।
इसे आँसू न कह एक याद अय्यामे गुलिस्‍ताँ है,मेरी उम्रे रवां को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।
बरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया  
                                      आनन्‍दनारायण मुल्‍ला

सृजन का दर्द 

अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है
                         कन्हैयालाल नंदन

Saturday, 6 August 2016

ULTIMATE SHAYARI BY MAJAZ LAKHNAVI

नौजवान ख़ातून से
हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था
तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में 
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था
ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है


जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है 
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 

तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है 
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों 

तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं

अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है
'मजाज़इक बादाकश तो है यक़ीनन 

जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

चार ग़ज़लें
[एक]


हुस्न को बेहिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछो
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था।
तेरे जलवों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।

[दो]

कमाल-ए-इश्क़ है दीवानः हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा’ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं
बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादः ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं


[तीन]


हुस्न फिर फ़ित्न (त्‌न) ग़र है क्या कहिए,
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए।

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए।
हुस्न ख़ुद पर्दादर है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए।
आह तो बेअसर थी बरसों से,
नग़्म भी बेअसर है क्या कहिए।
हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए।
आज भी है मजाज़ ख़ाकनशीन,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए।

[चार]



कुछ तुझको ख़बर है हम क्या-क्या, ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गये।
वो ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गये, वो दीदः-ए-गिरियां भूल गये।

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए, नज़ारों में कोई सूरत ही नहीं।
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कहिए,हम सूरत-ए-जानां भूल गये।
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं, अब दिल की कली खिलती ही नहीं।
ऐ फ़स्ल-ए-बहारां रूख़सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गये।
सबका तो मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके।
सबके तो गरेबां सी डाले, अपना ही गरेबां भूल गये।
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
इक नश्तर-ए-ज़हर आगीं रखकर नज़दीक-ए-रग-ए-जां भूल गये।
                                      Majaz Lakhnavi