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Wednesday 10 August 2016

URDU SHAYARI IN HINDI BY KHUMAR BARABANKAVI

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमारआप काफ़िर हुए जा रहे हैं  

ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
कहाँ है ऐ ग़मे-जानाँ! कहाँ है

इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है

ख़ुदा महफ़ूज़ रखे आफ़तों से
कई दिन से तबीयत शादमाँ है

वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दासताँ है

ये माना ज़िन्दगी फ़ानी है लेकिन
अगर आ जाए जीनाजाविदाँ है

सलामे-आख़िर अहले-अंजुमन को
'ख़ुमारअब ख़त्म अपनी दास्ताँ है

हिज्र की शब है और उजाला है

हिज्र की शब है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन ज़िन्दगी लेकिन
ग़मगुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मज़बूर-ओ-नामुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़  की परेशानी
आशियाँ  ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़
एहतरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है

शेर नज़्में शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें मुस्कुराई हैं क्या-क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है "ख़ुमार"
और चारों तरफ उजाला है
                ख़ुमार बाराबंकवी

BEAUTIFUL SHAYARI

निगाहो दिल का अफसाना
निगाहो दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया सहर या वक्त-ए-शाम आया ।।
ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकीं दिल का मुकाम आया ।
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बाला-ए-बाम आया ।
इसे आँसू न कह एक याद अय्यामे गुलिस्‍ताँ है,मेरी उम्रे रवां को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।
बरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया  
                                      आनन्‍दनारायण मुल्‍ला

सृजन का दर्द 

अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है
                         कन्हैयालाल नंदन

Saturday 6 August 2016

ULTIMATE SHAYARI BY MAJAZ LAKHNAVI

नौजवान ख़ातून से
हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था
तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में 
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था
ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है


जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है 
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 

तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है 
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों 

तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं

अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है
'मजाज़इक बादाकश तो है यक़ीनन 

जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

चार ग़ज़लें
[एक]


हुस्न को बेहिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछो
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था।
तेरे जलवों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।

[दो]

कमाल-ए-इश्क़ है दीवानः हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा’ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं
बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादः ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं


[तीन]


हुस्न फिर फ़ित्न (त्‌न) ग़र है क्या कहिए,
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए।

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए।
हुस्न ख़ुद पर्दादर है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए।
आह तो बेअसर थी बरसों से,
नग़्म भी बेअसर है क्या कहिए।
हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए।
आज भी है मजाज़ ख़ाकनशीन,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए।

[चार]



कुछ तुझको ख़बर है हम क्या-क्या, ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गये।
वो ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गये, वो दीदः-ए-गिरियां भूल गये।

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए, नज़ारों में कोई सूरत ही नहीं।
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कहिए,हम सूरत-ए-जानां भूल गये।
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं, अब दिल की कली खिलती ही नहीं।
ऐ फ़स्ल-ए-बहारां रूख़सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गये।
सबका तो मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके।
सबके तो गरेबां सी डाले, अपना ही गरेबां भूल गये।
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
इक नश्तर-ए-ज़हर आगीं रखकर नज़दीक-ए-रग-ए-जां भूल गये।
                                      Majaz Lakhnavi

Friday 5 August 2016

SHORT STORY KASBE KA AADMI

कसबे का आदमी 
- कमलेश्वर
सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ़ हो रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला-सा लगा। उसने अपनी चादर टाँगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज़ सुनाई दी, "पढ़ो पटे सित्तारम स़ित्तारम. . . "
उसने मुड़कर देखा, तो प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई ख़ास जाड़ा तो नहीं था, पर तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फ़ीनुमा सिलाई पड़ी थी और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नज़र आए। सिर पर टोपा भी था और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज़ गूँज उठी, "पढ़ो पटे सित्तारम सित्तारम. . ."
सभी लोगों की आँखें उधर ही ताकने लग गईं। आख़िर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहाँ तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से गोलियाँ बनाते जा रहे थे और पक्षी को पुचकार-पुचकारकर खिलाते जा रहे थे। पर तोता पूरा तोता-चश्म ही था। उनकी बार-बार की मिन्नत के बावजूद उसका कंठ नहीं फूटा। गोलियाँ तो वह निगलता जा रहा था, पर ईश्वर का नाम उसकी ज़बान से नहीं फूट रहा था। लौटते में एक नज़र उसने उन पर और डाली, तो लगा, जैसे चेहरा पहचाना हुआ है।
वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला पर याद नहीं आया। तभी उन्होंने तोते की ओर से दृष्टि हटाकर शिवराज की ओर देखा, अंगूठा और तर्जनी निरंतर एक रफ़्तार से अब भी गोली को शक्ल प्रदान कर रहे थे। माथे पर लहरें डालते हुए और आँखों को गोल कर कुछ अजीब निरीह-सा मुँह बनाकर वे शिवराज को संबोधित करते हुए बोले, "शिब्बू शिवराज है न तू?"
और अपना नाम उनके मुँह से सुनते ही उसे सब याद आ गया। ये तो छोटे महराज हैं।
वे जाति के वैश्य थे, पर कर्म के कारण महराज पुकारे जाने लगे थे। म्युनिसिपालिटी की दूकानों के पासवाली इमली के नीचे बैठकर वे पानी पिलाया करते थे। क़स्बे की सबसे रौनकदार जगह वही थी। वहीं कुएँ पर छोटे अपनी टाँगें तोड़े, जाँघ तक धोती सरकाए, जनेऊ डाले, चुटिया फहराए, नंगे बदन टीन की टूटी कुरसी पर जमे रहते। गाँववाले पानी पीकर एक-आध पैसा उनके पैरों के बीच उसी कुरसी पर रखकर चल देते। पैसा पाकर वह सामर्थ्य-भर आशीर्वाद देते। जब एक कूल्हा दर्द करने लगता, तो दूसरी तरफ़ ज़ोर डालने के लिए थोड़ा-सा कसमसाते और इसमें अगर कहीं कुरसी ने खाल दाब ली, तो तीन-चार मिनिट लगातार कुरसी को गालियाँ देते रहते। लगे हाथों ननकू हलवाई को भी कोसते, जिसने प्याऊ के लिए यह कुरसी दी थी।
तब छोटे महराज की उमर कोई ख़ास नहीं थी, यही 35-36 के क़रीब रही होगी। छोटे महराज के बाप-दादा सोने-चांदी का काम करते थे। काफ़ी पुराना घर था, दूकान थी। पर जब बाप मरे, तो छोटे की उमर बहुत कम थी। माँ पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। बाप के मरने के बाद दूर के रिश्ते की एक चाची आकर सब देखभाल करने लगीं। फिर बहुत बड़ी-सी चोरी हुई और छोटे का घर तबाह हो गया। चाची को तीरथ की सूझी, तो छोटे को साथ लेकर चल दीं। खर्चे की ज़रूरत पड़ने पर एक मुख़्तार से जब-तब रुपए मँगवाती रहीं। छोटे साथ थे, सो रसीद भेजते रहे। आख़िर जब तीरथ से वापस आए, तब पाँच-छह बरस मकान में और रहना हुआ। फिर मुख़्तार ने मूल और ब्याज के बदले एक दिन मकान कुर्क करा लिया, गवाही में छोटे के हाथ की रसीदें पेश कर दीं और औने-पौने में मकान झाड़ दिया। तब से उनकी चाची ने जनाने और अस्पताल में नौकरी कर ली और छोटे बिस्किटों का ठेला लगाने लगे और घूम-घूमकर बाज़ार की सड़कों पर चीखने लगे - 'एक पैसे में पचास, पचास बिस्किट इनाम ज़ितना लगाओगे, उतना पाओगे -'
ठेले में मैदे के छोटे-छोटे बिस्किटों का ढेर लगा रहता। एक कोने पर एक बड़ी-सी फिरकनी रखी रहती, जिस पर नंबर के खाने बने रहते और उस पर एक सुई नाचती रहती। जब कोई पैसा लगाकर घुमानेवाला न मिलता, तो खड़े-खड़े स्वयं घुमाते रहते, जितना नंबर आता, उतने बिस्किट गिनते और फिर ढेर में डालकर अनाज की तरह रोरते रहते। कभी करारे-करारे बीस-पचीस छाँट लेते, सुई घुमाते, अंटी से एक पैसा निकालकर पैसा रखनेवाले फूल के कटोरे में झन्न से मारते और जितना नंबर आता, उतने गिनकर, बाकी ढेर के सुपुर्द कर जलपान कर लेते।
लेकिन इस तरह कैसे पेट पलता। फिर एक होम्योपैथिक डॉक्टर की दूकान को रोज़ सुबह खोलने तथा झाड़ने-पोंछने का काम ले लिया। दो-चार घरों का पानी बाँध लिया। तड़के उठकर चार-चार डोल खींचकर डाल आते और डॉक्टर की दूकान की सफ़ाई आदि करके कोने में पड़े मोढ़े पर इज़्ज़त से दोपहर तक बैठे रहते। डॉक्टर साहब की अनुपस्थिति में मरीज़ों के हालचाल पूछ लेते। कुछ देसी दवाइयों के नुस्खे बताते और जर्मन दवाइयों की अहमियत समझाते।
तभी से छोटे अपने को बहुत-कुछ, एक छोटा-मोटा वैद्य समझने लगे थे। मरीज़ की दशा देखते ही रोग का ऐलान कर देते। तमाम रोगों के इलाज पर उन्होंने दखल जमा लिया था। जब मोतियाबिंद हो जाने के कारण डॉक्टर साहब को दूकान बंद कर देनी पड़ी, तो छोटे अपनी कोठरी में ही एक छोटा-सा औषधालय खोलने का मन्सूबा बाँधने लगे। रतनलाल अत्तार के यहाँ से आठ-दस आने की जड़ी-बूटियाँ भी बँधवा लाए, जिन्हें घोंट-पीस और कपड़छन करके सफ़ेद शीशियों में भरा और ताक में सजा दिया। फ़सली बुखार, हरे-पीले दस्त, नाक-कान-सिर-दर्द की हुक्मी दवाइयाँ बाँटने का ऐलान भी कर दिया। पर गली के परिवारों का सहयोग न मिलने के कारण उन्होंने इस नेक इरादे को छोड़ दिया। सारी हकीमी दवाइयों को थोड़ा-थोड़ा करके चूरन की पुड़ियों में मिलाकर उन्होंने आख़िर अपने पैसे सीधे कर लिए।
इस तरह के न जाने कितने घरेलू धंधे उन्होंने चलाए। जन्म से वैश्य होते हुए भी प्रकृति से परोपकारी होने के कारण उन्हें ब्राह्मणत्व भी प्राप्त करना ही था। इसीलिए जब गली-टोले के लड़कों ने उन्हें प्याऊ पर बैठते देखा और चमकदार काली पीठ पर जनेऊ दिखाई पड़ा, वे वंशगत भावनाओं से अनजान, कर्मगत संस्कारों के आधार पर उन्हें महराज पुकारने लगे। तभी से छोटेलाल छोटे महराज हो गए।
जिस इमली के नीचे वह बैठते थे, उस पर दैव की कृपा से महूक ने छत्ता धर लिया, तो एक दिन अंधियारे पाख में जाकर स्टेशन के पास से एक कंजर पकड़ लाए। छत्ता बटाई पर तै हो गया। पर छोटे महराज शहद का क्या करते। चलते वक़्त उसे कस दिया कि आधे दाम कल आ जाएँ। पर महीना-भर टल गया। झोंपड़ी पर तगादा करने पहुँचे। नगद पैसे तो मिले नहीं, अच्छी-ख़ासी डाँट लगाकर पैसों के बदले में तोता छाँट लिया। कंजर ने मिन्नत की कि तीनों तोते पेशगी दामों के हैं, इस बार जाएगा तो उनके लिए भी पकड़ लाएगा। पर छोटे न माने, दो-चार गालियाँ सुना दीं, तैश में बोले, "मेरे पैसे क्या हराम के थे, वह भी तो पेशगी में से ही हैं, ला निकाल जल्दी इस टुइयाँ को।" और तभी से यह तोता उनके पास है, जिसे जान की तरह चिपकाए रहते हैं।
शिवराज ने प्रसन्नता से उन्हें देखा। 'पालांगे महाराज' कहकर बोला, "इधर निकल आएँ महाराज, बहुत जगह है।"
जब वह पास आकर बैठ गए तो उसने पूछा, "झाँसी किस्के यहाँ गए थे?" "यहीं एक ब्याह था, उसमें आए थे, आना पड़ा अ़पनी कहो लेकिन देख, पहचान कैसा। नज़र कमज़ोर है लला, पर अपने गली-कूचे के पले लोगों की तो महक बहुत अच्छी होती है. . ." और वे धीरे-धीरे गरदन हिलाने लगे। उँगलियों के बीच गोली अब भी नाच रही थी और पिंजरे में बैठा संतू गोली के लालच से मुँह खोलता, आँखें बंद करता, पर बोलता नहीं था।
"बदन तो तुम्हारा एकदम लटक गया है, पहले से चोथाई भी नहीं रहा..." शिवराज बोला। उसे कुछ दु:ख-सा हो रहा था, जब उसने पिछली मरतबा देखा था, तब कितने हट्टे-कट्टे थे। यों उमर का उतार तो था, पर इतना फ़र्क तो बहुत है। भला उमर बने-बनाए आदमी को इतनी जल्दी भी तोड़ सकती है! गाड़ी की चाल धीमी पड़ गई। छोटे महराज ने संतू के पिंजरे को तनिक ऊपर उठाया। उसकी ओर प्यार-भरी दृष्टि से निहारते रहे। तोता कुछ बोला। छोटे महराज के मुख पर मुसकान दौड़ गई। बड़े स्नेह से पुचकारते हुए शिवराज को बताने लगे, "इसका नाम संतू है! यानी संत ज़ब बोले तो बानी बोले, हाँ, संत बानी सित्ताराम!" इतना कहते-कहते वे अपनी ही बात में डूब गए।
गाड़ी रुकी, कोई मामूली-सा स्टेशन था। छोटे महराज ने पेट पर हाथ फेरा और सिर हिलाते हुए बोले, "देखो शिब्बू, कुछ खाने-पीने का डौल है यहाँ?" मिठाईवाला पास से गुज़रा, शिवराज ने रोक लिया। छोटे महराज बोले, "कुछ ठीक-ठाक हो तो पाव-आध पाव...
मिठाई लेकर पैसे शिवराज ने दे दिए। दोनों हाथों में दोना पकड़कर शिवराज के सामने करते हुए वह बोले, "लो शिब्बू, चखो तो ज़रा, अच्छी हो तो पाव-भर और ले लो।"
और इससे पहले कि शिवराज चखे, उन्होंने खुद पोपले मुँह में एक टुकड़ा डालते हुए अपनी राय प्रकट कर दी, "है तो अच्छी ब़ुलाओ उसे।"
शिवराज को बात कसक गई। वह चुप ही बैठा रहा। झाँककर मिठाईवाले को बुलाने की कोई दिखावटी चेष्टा भी उसने नहीं की। पर जैसे ही मिठाईवाला फिर गुज़रा, उनकी दृष्टि पड़ गई। उसे रोकते हुए बोले, "हाँ भाई, ज़रा पाव-भर और देना तो।" फिर शिवराज की ओर मुख़ातिब होकर बोले, "ले लो, शिब्बू असल में बात यह है कि मुझसे अब कोई ऐसी-वैसी चीज़ तो खाई नहीं जाती, दाँत ही नहीं रहे। खोया-वोया थोड़ा आसान रहता है न।" कहकर उन्होंने निष्काम भाव से खाना शुरू कर दिया।
पैसे उसने फिर दे दिए। खाते समय छोटे महराज का निरीह-सा मुँह और एकदम सट जानेवाले जबड़े देखकर उसे रहम आ गया। उनकी झुकी गरदन, बार-बार पलकों का झपकना और ज़रा-ज़रा करके खाना, जैसे सारे कार्य और तन की सारी भाव-भंगिमाओं में लाचारी थी। उन्होंने एक टुकड़ा पिंजरे में डाल दिया। तोते ने खा लिया। पुचकारते हुए उन्होंने फिर एक टुकड़ा डाल दिया। वे स्वयं खाते रहे और संतू को खिलाते रहे। फिर बात चल निकली और उसी के मध्य उनका स्टेशन भी आ गया।
स्टेशन से बाहर आने पर शिवराज और छोटे महराज एक ही इक्के में बैठ गए। दो सवारियाँ और हो गईं। इक्का चला तो हचकोला लगा। छोटे महराज अपने तोते के पिंजरे को पटरे से बाहर लटकाए किसी तरह बैठे रहे। अस्पताल के पास वह इक्के से उतर पड़े। संतू का पिंजरा पटरी पर रख दिया और झोले में से कुछ निकालते हुए कहने लगे, "मैं यहीं उतर जाता हूँ। चाची को ब्याह का हालचाल बताकर कोठरी पर आऊँगा! हाँ, तुमसे एक काम है। ये एक कपड़ा है सिलक का, वहीं शादी में मिला था। मेरे तो भला क्या काम आएगा, तुम अपने काम में ले आना!" बात खतम करते-करते वह कपड़ा झोले से निकालकर शिवराज की गोद में रख दिया।
शिवराज ने लेने से इनकार कर दिया। पर वे नहीं माने। शिवराज भी नहीं माना, तो बड़े झुंझलाकर कपड़ा इक्के में फेंककर संतू का पिंजरा, झोला और सोंटा लेकर बड़बड़ाते चल दिए, "अरे पूछो म़ेरे किसी काम का हो तो एक बात भी है। ज़िंदगी-भर में एक चीज़ दी, उससे भी इनकार स़ब वक्त की बातें हैं, रहम दिखाते हैं मुझ पर, तेरे बाप होते तो अभी इसी बात पर चटख जाती।" फिर मुड़कर ऊँचे स्वर में बोले, "पैसे नहीं हैं मेरे पास, इक्केवाले को दे देना।" और वे जनाने अस्पताल के फाटक में गुम हो गए।
दूसरे दिन सवेरे छोटे महराज अपनी कोठरी में दिखाई दिए। देहरी पर बैठे-बैठे कराह रहे थे। कभी-कभी बुरी तरह से खाँस उठते। साँस का दौरा पड़ गया था। गली से शिवराज निकला तो पिछले दिन वाली बात के कारण उसकी हिम्मत कुछ कहने की नहीं पड़ी। सोचा कतराकर निकल जाए, पर पैर ठिठक रहे थे। तभी हाँफते-हाँफते छोटे महराज बोले, "अरे शिब्बू!" फिर कराहकर टुकड़े-टुकड़े करके कहने लगे, "दौरा पड़ गया है, कल रात से, हाँ, अब कौन देखे संतू को। बड़ी ख़राब आदत है इसकी, गरदन सलाख से बाहर कर लेता है। रात-भर बिल्ली चक्कर काटती रही, बेटा। छन-भर को पलक नहीं लगी। अपने होश-हवास ठीक नहीं तो कौन रखवाली करे इसकी। अपने घर रख लो, बेफ़िकर हो जाऊँ।"
और इतना कहकर बुरी तरह हाँफने लगे। गले में कफ़ घड़घड़ा आया, तो औंधे होकर लेट रहे। पीठ बुरी तरह उठ-बैठ रही थी। शिवराज 'अच्छा' कहकर पिंजरा उठाकर चलने लगा, तोते को एक बार पूरी आँख खोलकर उन्होंने ताका। उनकी गंदली-गंदली आँखों में एक अजीब विरह-मिश्रित तृप्ति थी। जैसे किसी बूढ़े ने अपनी लड़की विदा कर दी हो। सिर नीचा करके उन्होंने एक गहरी साँस खींची, जैसे बहुत भारी ऋण से उऋण हो गए हों।
तीन-चार दिन हो गए थे। छोटे महराज की हालत ख़राब होती जा रही थी। अकेले कोठरी में पड़े रहते। कोई पास बैठनेवाला भी नहीं था। चौथे दिन हालत कुछ ठीक नज़र आई। सरककर देहरी तक आए। घुटनों पर कोहनियाँ रखे और हथेलियों से सिर को साधे कुछ ठीक से बैठे थे। कभी कराह उठते, धाँस लगती तो खाँस उठते। पर उनके चेहरे पर अथाह शोक की छाया व्याप रही थी, जैसे किसी भारी गम़ में डूबे हों। उनकी आँखों में कुछ ऐसा भाव था, जैसे किसी ने उन्हें गहरा धोखा दिया हो, उनके कानों में बार-बार संतू की वह आवाज़ गूँज रही थी, जो उन्होंने दोपहर सुनी थी।
दोपहर संतू की कातर आवाज़ जब शिवराज के बरोठे से सुनाई दी तो वे घबरा गए थे कि कहीं बिल्ली की घात तो नहीं लग गई। बड़े परेशान रहे, पर उठना तो बस में नहीं था। शिवराज के घर की ओर बहुत देर आस लगाए रहे कि कोई निकले, तो पता चले। काफ़ी देर बाद मनुआ तोते के दो-तीन हरे-हरे पंखों का मुकुट बनाए माथे से बाँधे, दो-तीन बच्चों के साथ खेलता दिखाई पड़ा, देखते ही सनाका हो गया। संतू की पूँछ के लंबे-लंबे पंख! किसी तरह बुलाकर पूछा तो पता चला कि मुनुआ को राजा बनना था, सो उसने संतू की पूँछ पकड़ ली। बात की बात में दो-तीन पंख नुच आए।
छोटे महराज का जैसे सारा विश्वास उठ गया। ये लड़का तो उसे मार डालेगा! इस वक़्त तबीयत कुछ ठीक मालूम हुई, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना डंडा पकड़ा, हिलते-काँपते शिवराज के बरोठे में पहुँचे और अपना तोता वापस माँग लाए। कोठरी में आकर उसकी बूची पूँछ देखते रहे, पर मुँह से कुछ बोले नहीं। संतू को पुचकारा तक नहीं।
शाम हो आई थी। तिराहे पर लालटेन जल गई थी। पूरी गली में उदास अंधियारा भरता जा रहा था। उन्होंने संतू के पिंजरे को भीतर रखकर कोठरी के दरवाज़े उढ़का लिए और फिर नहीं निकले। भीतर कुछ देर तक खुट-पुट करते रहे, फिर रात भर कोई आवाज़ नहीं आई।
सवेरे शिवराज उधर से निकला तो कोठरी की ओर निगाह डाली।
दरवाज़े उसी तरह भिड़े थे। उसने धीरे से खोलकर झाँका, देखा महराज सो रहे थे। चुपचाप धीरे से दरवाज़ा बंद करने लगा, तो गली के रामनरायन बोल पड़े, "क्यों, आज नहीं उठे महराज अभी तक?"
और इतना कहते-कहते उन्होंने पूरे दरवाज़े खोल दिए। दोनों ने ग़ौर से देखा, तोते का पिंजरा सिरहाने रखा था, जिस पर कपड़ा था कि कहीं बिल्ली की घात न लग जाए, परंतु छोटे महराज का पिंजरा खाली पड़ा था, पंछी उड़ गया था।
छोटे महराज ने स्वयं तो नहीं पढ़ा था, पर रामलीला आदि में सुनने के कारण यह उनका पक्का विश्वास था कि अंतिम काल में यदि राम का नाम कानों में पड़ जाए तो मुक्ति मिल जाती है। पता नहीं, उनके अंतिम क्षणों में भी संतू तोते की वाणी फूटी थी या नहीं।
मिठाईवाला पास से गुज़रा, शिवराज ने रोक लिया। छोटे महराज बोले, "कुछ ठीक-ठाक हो तो पाव-आध पाव. . ."
मिठाई लेकर पैसे शिवराज ने दे दिए। दोनों हाथों में दोना पकड़कर शिवराज के सामने करते हुए वह बोले, "लो शिब्बू, चखो तो ज़रा, अच्छी हो तो पाव-भर और ले लो।"
और इससे पहले कि शिवराज चखे, उन्होंने खुद पोपले मुँह में एक टुकड़ा डालते हुए अपनी राय प्रकट कर दी, "है तो अच्छी ब़ुलाओ उसे।" शिवराज को बात कसक गई। वह चुप ही बैठा रहा। झाँककर मिठाईवाले को बुलाने की कोई दिखावटी चेष्टा भी उसने नहीं की। पर जैसे ही मिठाईवाला फिर गुज़रा, उनकी दृष्टि पड़ गई। उसे रोकते हुए बोले, "हाँ भाई, ज़रा पाव-भर और देना तो।" फिर शिवराज की ओर मुख़ातिब होकर बोले, "ले लो, शिब्बू असल में बात यह है कि मुझसे अब कोई ऐसी-वैसी चीज़ तो खाई नहीं जाती, दाँत ही नहीं रहे। खोया-वोया थोड़ा आसान रहता है न।" कहकर उन्होंने निष्काम भाव से खाना शुरू कर दिया।
पैसे उसने फिर दे दिए। खाते समय छोटे महराज का निरीह-सा मुँह और एकदम सट जानेवाले जबड़े देखकर उसे रहम आ गया। उनकी झुकी गरदन, बार-बार पलकों का झपकना और ज़रा-ज़रा करके खाना, जैसे सारे कार्य और तन की सारी भाव-भंगिमाओं में लाचारी थी। उन्होंने एक टुकड़ा पिंजरे में डाल दिया। तोते ने खा लिया। पुचकारते हुए उन्होंने फिर एक टुकड़ा डाल दिया। वे स्वयं खाते रहे और संतू को खिलाते रहे। फिर बात चल निकली और उसी के मध्य उनका स्टेशन भी आ गया।
स्टेशन से बाहर आने पर शिवराज और छोटे महराज एक ही इक्के में बैठ गए। दो सवारियाँ और हो गईं। इक्का चला तो हचकोला लगा। छोटे महराज अपने तोते के पिंजरे को पटरे से बाहर लटकाए किसी तरह बैठे रहे। अस्पताल के पास वह इक्के से उतर पड़े। संतू का पिंजरा पटरी पर रख दिया और झोले में से कुछ निकालते हुए कहने लगे, "मैं यहीं उतर जाता हूँ। चाची को ब्याह का हालचाल बताकर कोठरी पर आऊँगा! हाँ, तुमसे एक काम है। ये एक कपड़ा है सिलक का, वहीं शादी में मिला था। मेरे तो भला क्या काम आएगा, तुम अपने काम में ले आना!" बात खतम करते-करते वह कपड़ा झोले से निकालकर शिवराज की गोद में रख दिया।
शिवराज ने लेने से इनकार कर दिया। पर वे नहीं माने। शिवराज भी नहीं माना, तो बड़े झुंझलाकर कपड़ा इक्के में फेंककर संतू का पिंजरा, झोला और सोंटा लेकर बड़बड़ाते चल दिए, "अरे पूछो म़ेरे किसी काम का हो तो एक बात भी है। ज़िंदगी-भर में एक चीज़ दी, उससे भी इनकार स़ब वक्त की बातें हैं, रहम दिखाते हैं मुझ पर, तेरे बाप होते तो अभी इसी बात पर चटख जाती।"
फिर मुड़कर ऊँचे स्वर में बोले, "पैसे नहीं हैं मेरे पास, इक्केवाले को दे देना।" और वे जनाने अस्पताल के फाटक में गुम हो गए।
दूसरे दिन सवेरे छोटे महराज अपनी कोठरी में दिखाई दिए। देहरी पर बैठे-बैठे कराह रहे थे। कभी-कभी बुरी तरह से खाँस उठते। साँस का दौरा पड़ गया था। गली से शिवराज निकला तो पिछले दिन वाली बात के कारण उसकी हिम्मत कुछ कहने की नहीं पड़ी। सोचा कतराकर निकल जाए, पर पैर ठिठक रहे थे। तभी हाँफते-हाँफते छोटे महराज बोले, "अरे शिब्बू!" फिर कराहकर टुकड़े-टुकड़े करके कहने लगे, "दौरा पड़ गया है, कल रात से, हाँ, अब कौन देखे संतू को। बड़ी ख़राब आदत है इसकी, गरदन सलाख से बाहर कर लेता है। रात-भर बिल्ली चक्कर काटती रही, बेटा। छन-भर को पलक नहीं लगी। अपने होश-हवास ठीक नहीं तो कौन रखवाली करे इसकी। अपने घर रख लो, बेफ़िकर हो जाऊँ।"
और इतना कहकर बुरी तरह हाँफने लगे। गले में कफ़ घड़घड़ा आया, तो औंधे होकर लेट रहे। पीठ बुरी तरह उठ-बैठ रही थी। शिवराज 'अच्छा' कहकर पिंजरा उठाकर चलने लगा, तोते को एक बार पूरी आँख खोलकर उन्होंने ताका। उनकी गंदली-गंदली आँखों में एक अजीब विरह-मिश्रित तृप्ति थी। जैसे किसी बूढ़े ने अपनी लड़की विदा कर दी हो। सिर नीचा करके उन्होंने एक गहरी साँस खींची, जैसे बहुत भारी ऋण से उऋण हो गए हों।
तीन-चार दिन हो गए थे। छोटे महराज की हालत ख़राब होती जा रही थी। अकेले कोठरी में पड़े रहते। कोई पास बैठनेवाला भी नहीं था। चौथे दिन हालत कुछ ठीक नज़र आई। सरककर देहरी तक आए। घुटनों पर कोहनियाँ रखे और हथेलियों से सिर को साधे कुछ ठीक से बैठे थे। कभी कराह उठते, धाँस लगती तो खाँस उठते। पर उनके चेहरे पर अथाह शोक की छाया व्याप रही थी, जैसे किसी भारी गम़ में डूबे हों। उनकी आँखों में कुछ ऐसा भाव था, जैसे किसी ने उन्हें गहरा धोखा दिया हो, उनके कानों में बार-बार संतू की वह आवाज़ गूँज रही थी, जो उन्होंने दोपहर सुनी थी।
दोपहर संतू की कातर आवाज़ जब शिवराज के बरोठे से सुनाई दी तो वे घबरा गए थे कि कहीं बिल्ली की घात तो नहीं लग गई। बड़े परेशान रहे, पर उठना तो बस में नहीं था। शिवराज के घर की ओर बहुत देर आस लगाए रहे कि कोई निकले, तो पता चले। काफ़ी देर बाद मनुआ तोते के दो-तीन हरे-हरे पंखों का मुकुट बनाए माथे से बाँधे, दो-तीन बच्चों के साथ खेलता दिखाई पड़ा, देखते ही सनाका हो गया। संतू की पूँछ के लंबे-लंबे पंख! किसी तरह बुलाकर पूछा तो पता चला कि मुनुआ को राजा बनना था, सो उसने संतू की पूँछ पकड़ ली। बात की बात में दो-तीन पंख नुच आए।
छोटे महराज का जैसे सारा विश्वास उठ गया। ये लड़का तो उसे मार डालेगा! इस वक़्त तबीयत कुछ ठीक मालूम हुई, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना डंडा पकड़ा, हिलते-काँपते शिवराज के बरोठे में पहुँचे और अपना तोता वापस माँग लाए। कोठरी में आकर उसकी बूची पूँछ देखते रहे, पर मुँह से कुछ बोले नहीं। संतू को पुचकारा तक नहीं।
शाम हो आई थी। तिराहे पर लालटेन जल गई थी। पूरी गली में उदास अंधियारा भरता जा रहा था। उन्होंने संतू के पिंजरे को भीतर रखकर कोठरी के दरवाज़े उढ़का लिए और फिर नहीं निकले। भीतर कुछ देर तक खुट-पुट करते रहे, फिर रात भर कोई आवाज़ नहीं आई।

सवेरे शिवराज उधर से निकला तो कोठरी की ओर निगाह डाली। दरवाज़े उसी तरह भिड़े थे। उसने धीरे से खोलकर झाँका, देखा महराज सो रहे थे। चुपचाप धीरे से दरवाज़ा बंद करने लगा, तो गली के रामनरायन बोल पड़े, "क्यों, आज नहीं उठे महराज अभी तक?"
और इतना कहते-कहते उन्होंने पूरे दरवाज़े खोल दिए। दोनों ने ग़ौर से देखा, तोते का पिंजरा सिरहाने रखा था, जिस पर कपड़ा था कि कहीं बिल्ली की घात न लग जाए, परंतु छोटे महराज का पिंजरा खाली पड़ा था, पंछी उड़ गया था।
छोटे महराज ने स्वयं तो नहीं पढ़ा था, पर रामलीला आदि में सुनने के कारण यह उनका पक्का विश्वास था कि अंतिम काल में यदि राम का नाम कानों में पड़ जाए तो मुक्ति मिल जाती है। पता नहीं, उनके अंतिम क्षणों में भी संतू तोते की वाणी फूटी थी या नहीं।
                                                                                                                                            - कमलेश्वर

Wednesday 3 August 2016

PARAMATMA KA KUTTA SHORT STORY BY MOHAN RAKESH

परमात्मा का कुत्ता
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम थाऔर कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था,लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाटअपनी लाठियों पर झुके हुएउसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा थावह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्‌टा लगा रहा थासी ए टी कैटकैट माने बिल्लीबी ए टी बैटबैट माने बल्लाएफ ए टी फैटफैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करतेरजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासीआस-पास की भीड़ से उदासीनअपने स्टूल पर बैठा मन ही मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थेऔर कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली थी। चिडिय़ों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उडऩे का अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलक़दमी कर रहे थे। एक सत्तर-पचहत्तर की बुढिय़ाजिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं थालोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लडक़े के मरने के बाद उसके नाम एलाट हुई ज़मीन की हकदार हो जाती है या नहीं...?
अन्दर हॉल कमरे में फ़ाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज़ के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ़्तरी कागज़ पर लिखी अपनी ताज़ा ग़ज़ल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ सुन रहे थे कि वह ग़ज़ल उसने शमा’ या बीसवीं सदी’ के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।
अज़ीज़ साहबये शेअर आपने आज ही कहे हैंया पहले के कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?” साँवले चेहरे और घनी मूँछों वाले एक बाबू ने बायीं आँख को ज़रा-सा दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गये।
यह बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल है,” अज़ीज़ साहब ने अदालत में खड़े होकर हलफिया बयान देने के लहज़े में कहा, “इससे पहले भी इसी वज़न पर कोई और चीज़ कही हो तो याद नहीं।” और फिर आँखों से सबके चेहरों को टटोलते हुए वे हल्की हँसी के साथ बोले, “अपना दीवान तो कोई रिसर्चदां ही मुरत्तब करेगा...।
एक फरमायशी कहकहा लगा जिसे शी-शी’ की आवाज़ों ने बीच में ही दबा दिया। कहकहे पर लगायी गयी इस ब्रेक का मतलब था कि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ़ ले आये हैं। कुछ देर का वक्फा रहाजिसमें सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फ़ाइल एक मेज़ से एक्शन के लिए दूसरी मेज़ पर पहुँच गयीसुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गयाऔर जिस बाबू की मेज़ से फ़ाइल गयी थीवह पाँच रुपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ शामिल हुआ। अज़ीज़ साहब अब आवाज़ ज़रा धीमी करके ग़ज़ल का अगला शेअर सुनाने लगे।
साहब के कमरे से घंटी हुई। चपरासी मुस्तैदी से उठकर अन्दर गयाऔर उसी मुस्तैदी से वापस आकर फिर अपने स्टूल पर बैठ गया।
चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक कराकर कमिश्नर साहब ने मेज़ पर रखे ढेर-से काग़ज़ों पर एक साथ दस्तख़त किए और पाइप सुलगाकर रीडर्ज़ डाइजेस्ट’ का ताज़ा अंक बैग से निकाल लिया। लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे इतालवी मर्दों से क्यों प्यार हैवे पढ़ चुके थे। और लेखों में हृदय की शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में जे.डी. रैटक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढऩे के लिए चुन रखा था। पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्यौरा पढऩे लगे।
तभी बाहर से कुछ शोर सुनाई देने लगा।
कम्पाउंड में पेड़ के नीचे बिखरकर बैठे लोगों में चार नए चेहरे आ शामिल हुए थे। एक अधेड़ आदमी था जिसने अपनी पगड़ी ज़मीन पर बिछा ली थी और हाथ पीछे करके तथा टाँगें फैलाकर उस पर बैठ गया था। पगड़ी के सिरे की तरफ़ उससे ज़रा बड़ी उम्र की एक स्त्री और एक जवान लडक़ी बैठी थींऔर उनके पास खड़ा एक दुबला-सा लडक़ा आस-पास की हर चीज़ को घूरती नज़र से देख रहा थाअधेड़ मरद की फैली हुई टाँगें धीरे-धीरे पूरी खुल गयी थीं और आवाज़ इतनी ऊँची हो गयी थी कि कम्पाउंड के बाहर से भी बहुत-से लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ खिंच गया था। वह बोलता हुआ साथ अपने घुटने पर हाथ मार रहा था। सरकार वक़्त ले रही है! दस-पाँच साल में सरकार फ़ैसला करेगी कि अर्ज़ी मं$जूर होनी चाहिए या नहीं। सालोयमराज भी तो हमारा वक़्त गिन रहा है। उधर वह वक़्त पूरा होगा और इधर तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्ज़ी मं$जूर हो गयी है।
चपरासी की टाँगें ज़मीन पर पुख़्ता हो गयींऔर वह सीधा खड़ा हो गया। कम्पाउंड में बिखरकर बैठे और लेटे हुए लोग अपनी-अपनी जगह पर कस गये। कई लोग उस पेड़ के पास आ जमा हुए।
दो साल से अर्ज़ी दे रखी है कि सालोज़मीन के नाम पर तुमने मुझे जो गड्ïढा एलाट कर दिया हैउसकी जगह कोई दूसरी ज़मीन दो। मगर दो साल से अर्ज़ी यहाँ के दो कमरे ही पार नहीं कर पायी!” वह आदमी अब जैसे एक मजमे में बैठकर तकरीर करने लगा, “इस कमरे से उस कमरे में अर्ज़ी के जाने में वक़्त लगता है! इस मेज़ से उस मेज़ तक जाने में भी वक़्त लगता है! सरकार वक़्त ले रही है! लोमैं आ गया हूँ आज यहीं पर अपना सारा घर-बार लेकर। ले लो जितना वक़्त तुम्हें लेना है!...सात साल की भुखमरी के बाद सालों ने ज़मीन दी है मुझेसौ मरले का गड्ïढा! उसमें क्या मैं बाप-दादों की अस्थियाँ गाड़ूँगाअर्ज़ी दी थी कि मुझे सौ मरले की जगह पचास मरले दे दीलेकिन ज़मीन तो दो! मगर अर्ज़ी दो साल से वक़्त ले रही है! मैं भूखा मर रहा हूँऔर अर्ज़ी वक़्त ले रही है!
चपरासी अपने हथियार लिये हुए आगे आयामाथे पर त्योरियाँ और आँखों में क्रोध। आस-पास की भीड़ को हटाता हुआ वह उसके पास आ गया।
ए मिस्टरचल हियां से बाहर!” उसने हथियारों की पूरी चोट के साथ कहा, “चल...उठ...!
मिस्टर आज यहाँ से नहीं उठ सकता1” वह आदमी अपनी टाँगें थोड़ी और चौड़ी करके बोला, “मिस्टर आज यहाँ का बादशाह है। पहले मिस्टर देश के बेताज बादशाहों की जय बुलाता था। अब वह किसी की जय नहीं बुलाता। अब वह खुद यहाँ का बादशाह है...बेलाज बादशाह7 उसे कोई लाज-शरम नहीं है। उस पर किसी का हुक्म नहीं चलता। समझे,चपरासी बादशाह!
अभी तुझे पता चल जाएगा कि तुझ पर किसी का हुक्म चलता है या नहीं,” चपरासी बादशाह और गरम हुआ, “अभी पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाएगा तो तेरी सारी बादशाही निकल जाएगी...।
हा-हा!” बेलाज बादशाह हँसा। तेरी पुलिस मेरी बादशाही निकालेगीतू बुला पुलिस को। मैं पुलिस के सामने नंगा हो जाऊँगा और कहूँगा कि निकालो मेरी बादशाही! हममें से किस-किसकी बादशाही निकालेगी पुलिसये मेरे साथ तीन बादशाह और हैं। यह मेरे भाई की बेवा हैउस भाई की जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकडक़र चीर दिया गया था। यह मेरे भाई का लडक़ा है जो अभी से तपेदिक का मरीज़ है। और यह मेरे भाई की लडक़ी है जो अब ब्याहने लायक हो गयी है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी पाकिस्तान में है। आज मैंने इन सबको बादशाही दे दी है। तू ले आ जाकर अपनी पुलिसकि आकर इन सबकी बादशाही निकाल दे। कुत्ता साला...!
अन्दर से कई-एक बाबू निकलकर बाहर आ गये थे। कुत्ता साला’ सुनकर चपरासी आपे से बाहर हो गया। वह तैश में उसे बाँह से पकडक़र घसीटने लगा, “तुझे अभी पता चल जाता है कि कौन साला कुत्ता है! मैं तुझे मार-मारकर...और उसने उसे अपने टूटे हुए बूट की एक ठोकर दी। स्त्री और लडक़ी सहमकर वहाँ से हट गयीं। लडक़ा एक तरफ़ खड़ा होकर रोने लगा।
बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आये और उन्होंने चपरासी को उस आदमी के पास से हटा लिया। चपरासी फिर भी बड़बड़ाता रहा, “कमीना आदमीदफ़्तर में आकर गाली देता है। मैं अभी तुझे दिखा देता कि...
एक तुम्हीं नहींयहाँ तुम सबके-सब कुत्ते हो,” वह आदमी कहता रहा, “तुम सब भी कुत्ते होऔर मैं भी कुत्ता हूँ। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि तुम लोग सरकार के कुत्ते होहम लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ़ से भौंकते हो। मैं परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँऔर उसकी तरफ़ से भौंकता हूँ। उसका घर इन्साफ़ का घर है। मैं उसके घर की रखवाली करता हूँ। तुम सब उसके इन्साफ़ की दौलत के लुटेरे हो। तुम पर भौंकना मेरा फर्ज़ हैमेरे मालिक का फरमान है। मेरा तुमसे अज़ली बैर है। कुत्ते का बैरी कुत्ता होता है। तुम मेरे दुश्मन होमैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। मैं अकेला हूँइसलिए तुम सब मिलकर मुझे मारो। मुझे यहाँ से निकाल दो। लेकिन मैं फिर भी भौंकता रहूँगा। तुम मेरा भौंकना बन्द नहीं कर सकते। मेरे अन्दर मेरे मालिक का नर हैमेरे वाहगुरु का तेज़ है। मुझे जहाँ बन्द कर दोगेमैं वहाँ भौंकूँगाऔर भौंक-भौंककर तुम सबके कान फाड़ दूँगा। सालेआदमी के कुत्तेजूठी हड्डी पर मरनेवाले कुत्ते दुम हिला-हिलाकर जीनेवाले कुत्ते...!
बाबा जीबस करो,” एक बाबू हाथ जोडक़र बोला, “हम लोगों पर रहम खाओऔर अपनी यह सन्तबानी बन्द करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या हैतुम्हारा केस क्या है...?”
मेरा नाम है बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ़्तर का दिया हुआ है। मैं बारह सौ छब्बीस बटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरु का कुत्ताबारह सौ छब्बीस बटा सात।
बाबा जीआज जाओकल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्ज़ी की कार्रवाई तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है...।
तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन-तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती हैकि पहले मैं पूरा होता हूँ! एक तरफ़ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ़ परमात्मा का हुनर है! तुम्हारा तकरीबन-तकरीबन अभी दफ़्तर में ही रहेगा और मेरा तकरीबन-तकरीबन कफ़न में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई ख़र्च करके दो लफ़्ज ईज़ाद किये हैंशायद और तकरीबन। शायद आपके काग़ज़ ऊपर चले गये हैंतकरीबन-तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है!’ शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो! तकरीबन से निकालो और शायद में गर्क़ कर दो। तकरीबन तीन-चार महीने में तहक़ीक़ात होगी।...शायद महीने-दो महीने में रिपोर्ट आएगी।’ मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना हैतो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के गाहक ये सब खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो...।
बाबू लोग अपनी सद्‌भावना के प्रभाव से निराश होकर एक-एक करके अन्दर लौटने लगे।
बैठा हैबैठा रहने दो।
बकता हैबकने दो।
साला बदमाशी से काम निकालना चाहता है।
लेट हिम बार्क हिमसेल्फ टु डेथ।
बाबुओं के साथ चपरासी भी बड़बड़ाता हुआ अपने स्टूल पर लौट गया। मैं साले के दाँत तोड़ देता। अब बाबू लोग हाक़िम हैं और हाक़िमों का कहा मानना पड़ता हैवरना...
अरे बाबाशान्ति से काम ले। यहाँ मिन्नत चलती हैपैसा चलता हैधौंस नहीं चलती,” भीड़ में से कोई उसे समझाने लगा।
वह आदमी उठकर खड़ा हो गया।
मगर परमात्मा का हुक्म हर जगह चलता है,” वह अपनी कमीज़ उतारता हुआ बोला, “और परमात्मा के हुक़्म से आज बेलाज बादशाह नंगा होकर कमिश्नर साहब के कमरे में जाएगा। आज वह नंगी पीठ पर साहब के डंडे खाएगा। आज वह बूटों की ठोकरें खाकर प्रान देगा। लेकिन वह किसी की मिन्नत नहीं करेगा। किसी को पैसा नहीं चढ़ाएगा। किसी की पूजा नहीं करेगा। जो वाहगुरु की पूजा करता हैवह और किसी की पूजा नहीं कर सकता। तो वाहगुरु का नाम लेकर...
और इससे पहले कि वह अपने कहे को किये में परिणत करतादो-एक आदमियों ने बढक़र तहमद की गाँठ पर रखे उसके हाथ को पकड़ लिया। बेलाज बादशाह अपना हाथ छुड़ाने के लिए संघर्ष करने लगा।
मुझे जाकर पूछने दो कि क्या महात्मा गाँधी ने इसीलिए इन्हें आज़ादी दिलाई थी कि ये आज़ादी के साथ इस तरह सम्भोग करेंउसकी मिट्‌टी ख़राब करेंउसके नाम पर कलंक लगाएँउसे टके-टके की फ़ाइलों में बाँधकर ज़लील करें?लोगों के दिलों में उसके लिए नफ़रत पैदा करेंइन्सान के तन पर कपड़े देखकर बात इन लोगों की समझ में नहीं आती। शरम तो उसे होती है जो इन्सान हो। मैं तो आप कहता हूँ कि मैं इन्सान नहींकुत्ता हूँ...!
सहसा भीड़ में एक दहशत-सी फैल गयी। कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर निकल आये थे। वे माथे की त्योरियों और चेहरे की झुर्रियों को गहरा किये भीड़ के बीच में आ गये।
क्या बात हैक्या चाहते हो तुम?”
आपसे मिलना चाहता हूँसाहब,” वह आदमी साहब को घूरता हुआ बोला, “सौ मरले का एक गड्ïढा मेरे नाम एलाट हुआ है। वह गड्ïढा आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार उसमें एक तालाब बनवा देऔर अफ़सर लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढे में सरकार एक तहख़ाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बन्द कर दे...।
ज़्यादा बक-बक मत करोऔर अपना केस लेकर मेरे पास आओ।
मेरा केस मेरे पास नहीं हैसाहब! दो साल से सरकार के पास हैआपके पास है। मेरे पास अपना शरीर और दो कपड़े हैं। चार दिन बाद ये भी नहीं रहेंगेइसलिए इन्हें भी आज ही उतारे दे रहा हूँ। इसके बाद बाकी सिर्फ़ बारह सौ छब्बीस बटा सात रह जाएगा। बारह सौ छब्बीस बटा सात को मार-मारकर परमात्मा के हु$जूर में भेज दिया जाएगा...।
यह बकवास बन्द करो ओर मेरे साथ अन्दर आओ।
और कमिश्नर साहब अपने कमरे में वापस चले गये। वह आदमी भी कमीज़ कन्धे पर रखे उस कमरे की तरफ़ चल दिया।
दो साल चक्कर लगाता रहाकिसी ने बात नहीं सुनी। ख़ुशामदें करता रहाकिसी ने बात नहीं सुनी। वास्ते देता रहा,किसी ने बात नहीं सुनी...।
चपरासी ने उसके लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाख़िल हो गया। घंटी बजीफ़ाइलें हिलीं,बाबुओं की बुलाहट हुईऔर आधे घंटे के बाद बेलाज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया। उत्सुक आँखों की भीड़ ने उसे आते देखातो वह फिर बोलने लगा, “चूहों की तरह बिटर-बिटर देखने में कुछ नहीं होता। भौंकोभौंको,सबके-सब भौंको। अपने-आप सालों के कान फट जाएँगे। भौंको कुत्तोभौंको...
उसकी भौजाई दोनों बच्चों के साथ गेट के पास खड़ी इन्तज़ार कर रही थी। लडक़े और लडक़ी के कन्धों पर हाथ रखते हुए वह सचमुच बादशाह की तरह सडक़ पर चलने लगा।
हयादार होतो सालहा-साल मुँह लटकाए खड़े रहो। अर्ज़ियाँ टाइप कराओ और नल का पानी पियो। सरकार वक़्त ले रही है! नहीं तो बेहया बनो। बेहयाई हज़ार बरकत है।
वह सहसा रुका और ज़ोर से हँसा।
यारोबेहयाई हज़ार बरकत है।
उसके चले जाने के बाद कम्पाउंड में और आस-पास मातमी वातावरण पहले से और गहरा हो गया। भीड़ धीरे-धीरे बिखरकर अपनी जगहों पर चली गयी। चपरासी की टाँगें फिर स्टूल पर झूलने लगीं। सामने के कैंटीन का लडक़ा बाबुओं के कमरे में एक सेट चाय ले गया। अर्ज़ीनवीस की मशीन चलने लगी और टिक-टिक की आवाज़ के साथ उसका लडक़ा फिर अपना सबक दोहराने लगा। पी ई एन पेनपेन माने कलमएच ई एन हेनहेन माने मुर्गीडी ई ऐन डेनडेन माने अँधेरी गुफा...!
                                                                                                                                         
                                                                                                                                    Mohan Rakesh     

Tuesday 2 August 2016

FINE ESSAYS IN HINDI

1.ताली तो छूट गयी
क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप शहर घूम-घामकर घर लौटे हों और तब आपको याद आया हो कि चाबियों का गुच्छा तो आप कहीं और छोड़ आये हैं? सवाल प्रतीकात्मक ही है, क्योंकि उसका रूप यह भी हो सकता है कि घर केवल एक कमरा रहा हो और चाबियों का गुच्छा केवल एक ताली, और कहीं और छोड़ आने की बजाय आपने उसे कमरे के भीतर ही छोड़ दिया हो क्योंकि कमरे का ताला उस जाति का है जिसे बन्द करने के लिए ताली की जरूरत नहीं पड़ती, वह दबा देने से ही बन्द हो जाता है।

सवाल यों भी सांकेतिक है कि वास्तव में आपसे पूछ ही नहीं रहा हूँ, वास्तव में तो स्वीकार ही कर रहा हूँ क्योंकि मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है। और तथ्य को स्वीकार करने के साथ-साथ यह भी संकेत कर रहा हूँ कि अपने से जुड़े तथ्य को मैं किसी व्यापकतर सन्दर्भ के साथ जोड़ देना चाह रहा हूँ। क्या तालों के साथ कुंजियों का जो सम्बन्ध है, उसका एक पक्ष यह भी है कि कुंजियाँ जब-तब खो जाया करें और हम तालों के समक्ष असहाय खड़े रह जाया करें? अब देखिए न, प्रश्न को इस रूप में रखते ही उसके कितने प्रतीकात्मक विस्तारों की गूँज सुनाई देने लगी! क्या हम किसी स्थूल वास्तविक ताले-चाबी की बात कर रहे हैं, या उन सभी बौद्धिक प्रश्नों की जिज्ञासाओं की जिनके आगे हम अक्सर निरुत्तर रह जाया करते हैं? या उन मानसिक ग्रान्थियों-गुत्थियों की जिनको सुलझाने में हम अपने को अमसर्थ पाते हैं।

बल्कि अब ग्रन्थियों-गुत्थियों की बात करते ही प्रश्न का एक और विस्तार सामने आ गया : मनोविश्लेषणवादियों के लिए तो ताले और चाबी के सम्बन्ध के आयाम दूसरे ही हैं। उनको तो इसमें बड़ा गहरा अर्थ दीखता है कि आपसे चाबी अक्सर खो जाती है और आप ताले के सामने अपने को असहाय पाते हैं। बल्कि वे तो यथार्थ की बात से छलाँग लगाकर तुरन्त स्वप्न-लोक में पहुँच जाएँगे-अपने स्वप्न-लोक में नहीं, आपके स्वप्न-लोक में! क्या आपको ताले-चाबी के भी स्वप्न दीखते हैं? क्या स्वप्न में ऐसा भी होता है कि आप अँधेरे में टटोल रहे हैं और आपको ताले का सूराख नहीं मिलता? या कि जो चाबी आपने निकाली है वह उस ताले में फिट नहीं बैठती! और ऐसे स्वप्न के साथ आपको क्या घबड़ाहट का भी बोध होता है? ...ताले-चाबी की बात करते-करते मनोविश्लेषणवादी चाबी से लगी जंजीर के सहारे आपको खींचते-खींचते व्यंजनाओं के किस दलदल में ले जाएँगे-कुछ पूछिए मत!

उमर ख़ैयाम तो एक तरह से बड़े भाग्यवान थे कि उनका जन्म (जन्म ही नहीं, उनकी मृत्यु भी!) फ्रायड से बहुत पहले हो गयी-इतनी पहले कि बीच में फिट्जैराल्ड को ख़ैयाम की रुबाइयों का एक स्वतन्त्र और कल्पनाशील अनुवाद कर डालने का भी समय मिल गया। अनुवाद तो और भी बहुत से हुए-लेकिन ये सारे अनुवाद ख़ैयाम की रुबाइयात के नहीं, फिट्जैराल्ड के अँग्रेज़ी ‘रुबाइयात-ए-उमर ख़ैयाम’ के रहे। हिन्दी में ही तीन-तीन महाकवियों ने अँग्रेज़ी रुबाइयात के अनुवाद कर डाले और दो-तीन पंडितों ने भी-और हमने तो सुना है कि दो-एक संस्कृत पंडितों ने भी उसके संस्कृत अनुवाद कर डाले हैं! ये सारे अनुवाद यों तो फ्रायड की प्रसिद्धि के बाद ही हुए; लेकिन अनुवाद होने के नाते किसी अनुवादक को इस बात को लेकिन चिन्ता नहीं हुई कि ताले और चाबी की बात से बढ़ते-बढ़ते क्या-क्या अनुमान लगाये जा सकते हैं, क्या-क्या ध्वनित किया जा सकता है! अनुमान जो होंगे ख़ैयाम के बारे में होंगे, अनुवादकों के बारे में क्यों होने लगे? वे तो एक दिन हुए पाठ को लेकर ही चल रहे हैं।

ख़ैयाम ने तो सहज भाव से लिख दिया : ‘एक द्वार था जिसकी कोई चाबी मुझे नहीं मिली, एक रहा था जिसके पार मुझे कुछ नहीं दीखा।’ लेकिन जहाँ तक द्वार का सवाल है, हिन्दी के कवि को तो ‘आँगन के पार द्वार मिले द्वार के पार आँगन’ और उस प्रकार वह भवन की चिन्ता करने से ही मुक्तहो गया-यों भी अपने ओर-छोरों के बीच भवन तो कहीं खो ही गया था और उसमें सीधे जाकर द्वार के प्रतिहारी को ‘बार-बार पालागन’ कहकर अपनी सुरक्षा की व्यवस्था कर ली। अब कह लीजिए कि अपनी सुरक्षा की व्यवस्था कर लेना हिन्दी कवि बल्कि हिन्दी समाज के स्वभाव में ही है और इसके लिए वह सबकी पा-लगी को ही स्वस्थ उपाय मानता है। द्वारपाल से धोक देना शुरू किया तो हर देहरी पर धोक देता हुआ सीधे भीतर के भी भीतरतम तक पहुँच गया-मन्दिर हो तो गर्भगृह में विराजमान देवता तक और राजमहल हो तो अन्त:पुर में विराजमान राज-व्यष्टि तक। वह व्यष्टि राजा हो तो और रानी हो तो; उसे कोई फ़र्क़ पडऩेवाला नहीं है-वह तो अब सुरक्षा की परिधि में आ गया है और एक बार फिर कार्निश करके एक तरफ़ खड़ा हो जाएगा। हिन्दी समाज का यह स्वभाव न होता तो क्या आज हिन्दी प्रदेश की राजनीति का वह रूप हमें देखने को मिलता तो आज प्रत्यक्ष है?

धत् तेरे की! यह भी हिन्दी समाज का स्वभाव है कि बात चाहे कहीं से शुरू हो, आकर टिकती है राजनीतिपर! राजनीति वह चाबी है जो हर ताले में फिट हो जाती है। लेकिन नहीं, हम राजनीति की बात नहीं करेंगे। हमारा प्रयोजन उस चाबी से नहीं है जो हर ताले में फिट बैठ जाए (भले ही ताले को खोले नहीं, फिट बैठकर इत्मीनान से बेरोकटोक उसके अन्दर घूमती रहे), हमारा प्रयोजन तो उस ताले से है जिसमें कोई चाबी फिट नहीं बैठती।

देयर वाज़ ए डोर टु व्हिच आइ फाउंड नो की

हमें लगता है कि ख़ैयाम ठीक रास्ते पर था। ख़ैयाम राजनीतिक नहीं था (मनोविश्लेषण भी नहीं था); ख़ैयाम कवि था। और कवि ही उस ताले का सामना कर सकता है जिसकी चाबी उसके पास नहीं है और अनातंकित भाव से उस ताले के पीछे बन्द द्वार को और उस द्वार के पीछे के बन्द संसार को अपनी कल्पना के आगे मूत्र्त कर सकता है, कल्पना के भेदक प्रकाश से उजागर करके देख सकता है।

और यह उस अनातंकित भाव से ही होता है कि ताले भी केवल परिस्थिति का एक तथ्य-भर रह जाते हैं, वास्तविक अवरोध नहीं-वे कवि की गति में बाधा नहीं डाल सकते। ताले भी हैं, दीवार भी हैं, परकोटे भी हैं-पर कवि की गति इनसे अवरुद्ध नहीं होती क्योंकि कवि तो पहले ही इन सबके पार भीतर के उस गुहा-प्रदेश में है जिसे ‘देवानां पूरयोध्या’ कहा गया है-द्रष्टा कवि के द्वारा ही कहा गया है, क्योंकि वही तो उसे बाहर से स्पष्ट देखता हुआ उसके भीतर भी पहुँचा रहता है। ताले-कुंजी की बात उसके लिए महत्त्व की नहीं रहती, बल्कि दीवारों की भी नहीं रहती! असल में तो वह भीतर-बाहर के इस भेद की कृत्रिमता को ही उघाड़ देता है। वही दिखाता है कि कोई वास्तविक भेद नहीं है, हम परिभाषा की ही एक दीवार खड़ी कर देते हैं और वह इसी से और भी दृढ़ हो जाती है कि वह अदृश्य होती है। भाषा यों तो मानव की मुक्ति का श्रेष्ठ उपकरण है, पर वही दीवारें खड़ी करने का अद्वितीय सामथ्र्य भी रखती है जो इससे और भी बढ़ जाता है कि ये दीवारें अदृश्य होती हैं। अदृश्य होती हैं लेकिन पारदर्शी नहीं होतीं, दृष्टि को काटतीं नहीं मानो वापस मोड़ देती हैं। इसी में तो उनकी शक्ति होती है; हमारी दीठ अवरुद्ध नहीं होती, हम देखते तो रहते हैं पर दीवार के पार नहीं देखते, लौटकर फिर अपनी ही ओर देखते रह जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कभी-कभी अनजाने मुकुर में झाँकने से हो जाता हे, जब हमें पता नहीं होता कि वहाँ मुकुर है। भाषा भी तब दीवार बनती है जब वह अदृश्य मुकुर की तरह हो जाती है।

और कवि को हम ‘वाक्सिद्ध’ अथवा स्रष्टा तभी कहते हैं जब वह मुकुर में दीखते हुए प्रतिबिम्बों को नकारे बिना हठात् हमें उसके पार का समूचा परिदृश्य भी दिखा देता है। जब कुंजियाँ अनावश्यक हो गयी होती हैं क्योंकि ताले की सत्त्वरहित हो चुके होते हैं।

भीतर और बाहर। बिना सोचे-समझे हमने मान लिया होता है कि भीतर अर्थात् छोटा, सूक्ष्म; और बाहर अर्थात् बड़ा, विराट। यह भी उस अदृश्य भाषा-मुकुर का ही चमत्कार होता है। नहीं तो हमें भीतर झाँककर ही तो विराट दीखता है। क्या यही बात परम भागवत कवि ने हमें नहीं बतायी थी जब उसने मिट्टी खाने वाले बालगोपाल के छोटे-से गोल मुँह में माता यशोदा को एकाएक विराट विश्वरूप के दर्शन करा दिए थे! वह बाल-मुख इसीलिए तो भगवान का मुख है कि वह प्रतिबिम्ब-दर्शन मुकुर नहीं है, स्वयं साक्षात सच्चिन्मय बिम्ब है-स्वयंसिद्ध और स्वत:प्रकाश सत्ता? और उसी प्रकार हम बाहर देखते हैं, तो बाहर के नाम पर मिलता है ब्यौरा, और भी महीन ब्यौरा... क्या यह बात कुछ अर्थ नहीं रखती कि आज का चित्रकार जो लगातार बड़े-से-बड़ा चित्र बनाने में लगा है, उसमें ब्यौरा कुछ भी नहीं देता-देना नहीं चाहता या दे नहीं पाता? आकार बड़े-से-बड़ा, पर ब्यौरा कम-से-कम, आकृतियाँ कम, रेखाएँ कम, सीमा-सन्दर्भ कम... और उधर पुराना चित्रकार जो बहुत छोटे पैमाने पर काम करता था उसी में अधिक-से-अधिक ब्यौरा दे देता था-पेड़ हो तो एक-एक पत्ती, पत्ती का एक-एक रेश; शबीह हो तो चेहरे की एक-एक झाँई, एक-एक सलवट, लट का एक-एक बाल, दुपट्टे-घघरे की गोट के एक-एक तारक-फूल कीएक-एक पंखुरी... एक तरफ गागर में सागर भरता है, दूसरी तरफ़ सागर में गागर को ऊब-डूब करने की जगह नहीं है : क्या चित्रकार भी अपने ढंग से उसी बात को संकेतित नहीं कर रहा जिसे कवि इतने विशद ढंग से कहता है-कि भीतर की अपनी नि:सीमता है, बाहर की अपनी संवलितता : कि ये नाम केवल बात करने की सुविधा के लिए हैं, उनकी आत्यन्तिक सत्ता नहीं है...

‘बात करने की सुविधा’-अर्थात् ताले की कुंजी। पर वही कुंजी जिसके साथ ताला खुले ही, ऐसा कोई दावा नहीं है; ताला अपनी जगह रह जाए, पर हम कमरे से बाहर छूट गये होने के असमंजस से छुटकारा पा जाएँ। अब सोचिए-’छुटकारा पाना’ तो ताले का खुलना है : पर ‘छूट गये होने से छुटकारा’-वह क्या होता है? ताले से बाहर रह गये होने की कैद से मुक्ति?
तार्किक एक युक्ति पर हमें हँसा देता है ; कवि वहीं पर हमें टोक देता है कि जिस बात पर हम हँस दिये हैं वह तो एक गहरी सचाई है। युक्ति तो केवल भाषायी सौष्ठव का एक अंग है, एक वेश है; सचाई तो उसके भीतर वेष्टित है। कवि तो हमेशा सोचता है कि उसका घर ताले-कुंजी से ही क्यों, द्वार-दीवार की झंझट से भी मुक्त होगा-तभी तो वह घर होगा
बे-दरो-दीवार-सा इक घर बनाना चाहिए
अब अगर दरो-दीवार के बगैर भी घर हो सकता है-और होता है, यह हमारे कवि हमें सनातन काल से बताते आये हैं-तो प्रश्न उठता है कि जब दरो-दीवार, ताले-कुंजी सब होते हैं तब घर क्यों उनके भीतर कैद होता है? क्योंकि अगर दरो-दीवार ही घर हैं तब तो इनके बिना घर बचता ही नहीं : और अगर फिर भी बचता है तो ये उसे रचते नहीं, केवल रूपायित कर देते हैं, सीमा द्वारा परिभाषित कर देते हैं-परिसमित कर देते हैं। और दरो-दीवार हटा देने पर भी जो घर बच रहता है, उसके सन्दर्भ में बाहर और भीतर का कोई भेद रहता ही नहीं-वह बाहर भी है और भीतर भी, बाहर के भीतर है और भीतर के बाहर भी... बिहारी के बरवै की भोली नायिका जब कहती है :
लै के सुघर खुरपिया पिय के साथ
छइबै एक छतरिया बरसत पाथ
तब जिस छतरिया की बात वह कह रही है, खुरपिया के सहारे उसे केवल ढँक लेने की बात ही वह सोच रही है, छतरिया गढऩे की नहीं। छतरिया तो पहले से है, और क्योंकि पहले से है इसीलिए ‘बरसत पाथ’ से उसे बचाने के लिए उसे छवाने की जरूरत है-छतरिया को बचाने के लिए, उसमें सुरक्षित ‘पिय के साथ’ को भी बचाये रखने के लिए। और क्या यह बातने की कोई आवश्यकता है कि पिय का यह साथ एकान्त निजी भी है, निभृत भी, सूक्ष्म भी-और विराट विश्वव्यापी भी?

शायद यही बात मूर्तिकार रोदैं ने पत्थर की लीक पर लिख देनी चाही थी जब उसने दो हाथ-एक पुरुष का, एक नारी का-ऐसे गढ़े थे मानो किसी रहस्यमय प्रकाश को-और प्यार के प्रत्यय से बड़ा रहस्य और कौन-सा होगा जो एक साथ ही गोपनतम भी होता है, प्रकाश-दीप्त भी?-ओट दे रहे हों, और इस रचना को नाम दिया था ‘कैथिड्रल’! सचमुच दो प्रेममय हाथों के बीच का वह सुरक्षित सूक्ष्म अन्तराल ही तो वह बे-दरो-दीवार घर है जो देव-मन्दिर है। (रोदें ने ऐसे ही दो हाथों की एक और अनगढ़ प्रतिमा गढ़ी जिसे उसने नाम दिया ‘दि सीक्रेट’-रहस्य। हाँ, यही तो और यहीं तो रहस्य है!) और यही तो उसका ताला है कि उसका न द्वार है, न दीवार, न भीतर, न बाहर-और यही उस ताले की कुंजी है। क्योंकि असल में तो वहाँ ताले-कुंजी का भी कोई सरोकार नहीं है। सुरक्षा अथवा असुरक्षा, दुराव अथवा प्रतीति का बोझ जहाँ से मिलता है वह तो अधिकरण ही दूसरा है। उस बोझ की आधार-भित्ति तो प्रेम है-प्रेम जो प्रीतम का घर है, ‘खाला का घर नाँहि।’ और उस घर में जिसे जाना है, वह ताले-कुंजी को तो घर में छोड़ता ही है, घर फूँक देता है और बीच-बजार कबिरा के साथ हो लेता है।


2.मरुथल की सीपियाँ
शायद संसार के सभी देशों में ऐसा लोक-विश्वास है कि सीपी को कान से लगाकर सुनें तो उसमें सागर का स्वर सुना जा सकता है। बहरहाल मैंने अपने बचपन में यह बात अलग-अलग प्रदेशों में सुनी थी और फिर कुछ विदेशी पुस्तकों में पढ़ी भी थी। मुझे याद है कि तभी से अनेकों बार सीपी कान से लगाकर सागर का स्वर सुनने का यत्न किया था। कौतूहल इसलिए और भी अधिक था कि तब तक सागर देखा नहीं था : चित्र ही देखे थे; और तब क्योंकि बोलती फिल्म का आविष्कार भी नहीं हुआ था इसलिए चलचित्र के साथ भी सागर का असली स्वर सुनने को नहीं मिला था, संगीत के द्वाारा ही उसका आभास प्रस्तुत किया जाता था। ‘आभास’ भी उसे क्यों कहें, अनुकृति भी वह नहीं थी; कह सकते हैं कि उसका एक सांगीतिक ध्वनि-रूपक चलचित्र के साथ प्रक्षेपित किया जाता था...

यों तो जिन सीपियों में सुनने का यत्न किया था वे भी अधिकतर नदी-ताल-पोखरों की सीपियाँ होती थीं-उन दिनों ताल-पोखरों के आस-पास कीच-कादों में भी काफ़ी बड़ी-बड़ी सीपियाँ मिल जाती थीं-बालक का कान ढँक लें इतनी बड़ी-और इसीलिए जब किसी अँग्रेज़ी परी-कथा में नायिका के लिए सीपी की उपमा दी गयी पढ़ी थी तब एकाएक चमत्कृत-सा हुआ था कि, हाँ, सचमुच सुन्दर कान सीपी-जैसे ही होते होंगे... कभी-कभी अचानक प्रकाश के स्रोत के आगे आ गये चेहरे में कान जैसे लाल जगमगा उठते हैं यह लक्ष्य किया था; उसी तरह सीपी उठाकर सूर्य के सामने रखकर पाया था कि वह भीतर से आलोकित हो उठती है-पतले कान-सी ठीक अगिया-लाल तो नहीं, पर फिर भी एक आकाशी नीली आभा लिये ललाई दशती हुई...अब तो सारे ताल-पोखरों का जल इतना प्रदूषित हो गया है कि बड़ी सीपियाँ तो क्या, छोटी-छोटी सीपियों के टुकड़े भी उनके आस-पास नहीं मिलते; और पहले सीपियों के अलावा जो अनेक प्रकार के घोंघे, गोल, चपटे, लम्बे या सींगिया शंख आदि भी मिल जाते थे उनकी तो बात ही क्या... हो सकता है कि पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के बड़े नदों के आस-पास अब भी मिल जाते हों-बाकी देश में तो कहीं उनका नामोनिशान नहीं दीखता, और शायद यह वृत्तान्त पढक़र आज के शक्की-मिजाज नौजवान तो यह समझेंगे कि यों ही बघार रहा हूँ। पर उन दिनों तो सचमुच कभी-कभी सीपियों के बदले शंख या घोंघे का भी छिद्र कान से सटाकर सागर का स्वर सुनने का यत्न किया करते थे। और अब भी उनमें वही शब्द सुनने को मिल जाता था तो उत्कृष्ट आह्लाद के साथ एक औचित्य का आश्वासन भी अनुभव होता था-ठीक तो है, पानी से जितना घना सम्बन्ध सीपी का है उतना ही शंख और घोंघों का, तब क्यों नहीं उनमें से भी उसी तरह सागर सुनाई देगा?

यों तो कुछ वर्षों के बाद मैं भी उसी वय में पहुँचा जो शक्की-मिजाज नौजवानों की होती है। अपनी सन्देह-बुद्धि को मैंने वैज्ञानिक जिज्ञासु भाव के साथ जोडऩे की कोशिश की हो वह अलग बात है। (शायद सब नहीं तो अनेक दूसरे नौजवान भी वैसी कोशिश करते होंगे!) तब प्रयोग करके यह भी देखा कि बाहर हो रहा कोई दूसरा शब्द भी सीपी-घोंघे में से सुनाई देता है; उसकी भीतरी खोखली गोलाई अवश्य उसे कुछ ऐसे एक स्वर का रूप दे देती है जिससे सागर का स्मरण हो आए। बिजली के बड़े पंखे का स्वर भी सीपीकी ओट से सागर की पछाड़ के एकस्वर जैसा ही तो लगता है... फिर तो यह भी समझ में आया कि बाहर सम्पूर्ण नि:स्वन भी हो तो भ्ी उस छोटे गूँजघर में जो अनुगूँज सुनाई देती है वह सागर की नहीं, अपने ही रक्त-प्रवाह के सूक्ष्म स्वर की अनुगूँज होती है-उस प्रवाह को हम यों नहीं सुन पाते पर कान पर ढँकी हुई सीपी एक ध्वनिविस्तारक गूँजघर का काम देती है और इसलिए जो स्वर बाहर से पूरी तरह अश्रव्य होता है वह भीतर से एक मन्द्र-गम्भीर घोष की तरह बज उठता है।

मन्द्र-गम्भीर घोष-भीतर से सुना हुआ घोष! यह कई वर्षों बाद एकाएक समझ में आया कि उसे सुनना-और यों सुनना-भी तो एक सागर को सुनना ही है-उस सुदूर सागर को नहीं जो केवल एक विक्षुब्ध तोयनिधि है, उस अनन्त आभ्यन्तर विस्तार को जो सत्ता का एक अवशेष सागर है, वह सागर जिसके साथ फिर यह भीतर-बाहर का भेद भी अर्थहीन हो जाता है, जिसके साथ सीपी के गूँजघर का भी यही रिश्ता होता है कि वह भीतर को बाहर तक गुँजा देती है...

जब यह समझ में आया तो मन में यह भाव भी उठा कि सागर को प्रत्यक्ष देखकर जो हम घंटों उसे देखते ही रह सकते हैं, उस सम्मोहन का एक कारण क्या यह भी नहीं है कि सागर भी चेतन अथवा अवचेतन रूप से सत्ता के महाम्बुधि का एक रूपक बन जाता है? पर तब क्या उस अनाद्यन्त सत्ता का एक ही रूपक है-क्या हमारी सर्जक कल्पना इतनी पंगु है कि और रूपक भी हम नहीं गढ़ सके या आविष्कृत कर सके?-क्योंकि इस स्तर पर फिर रूपक निरी गढ़न्त नहीं रहते, भीतर कहीं एक उन्मेष होता है, एक कौंध-सी एक बिम्ब सामने उजला जाती है और उसके साथ फिर एक सादृश्य-सम्बन्ध भी उद्घाटित हो जाता है। यह नहीं कि सभी रूपक ऐसे होते हैं, कि सादृश्यों के सहारे हम रूपकों को कभी गढ़ते नहीं, या कि हमारा उद्देश्य कभी चमत्कार पैदा करना, दूसरों को चमत्कृत करना नहीं होता। निश्चय ही अधिकतर तो रूपक हमारे रूपकल्पी मानस की ही उपज होते हैं। पर कुछ निश्चय ही ऐसे होते हैं जहाँ यह प्रक्रिया उलट जाती है : वहाँ हम चमत्कृत करते नहीं, होते हैं; सादृश्यों के सहारे बिम्ब तक नहीं जाते बल्कि बिम्ब ही हमें अपनी कौंध से ठगा-सा छोड़ जाता है और सादृश्यों की पहचान ही हम बाद में बुद्धि-व्यापार के सहारे पाते हैं... वहाँ जो रूपकल्पी सर्जना क्रियाशील होती है वह हमारी अकेले की नहीं, एक लोकव्यापी सर्जन का तेज लिए होती है जिसके लिए हमारी चित्त केवल एक भंडार घर है। वह रूप रचता है और इस भंडारे में रख जाता है : हम जब-तब उसे पाते हैं और प्रसन्न होते हैं कि हमने कुछ खोज निकाला!

और यह बोध मेरे मन में उठा तो कभी सागर के किनारे बैठे उसके सम्मोहन में खोये-खोये नहीं, बल्कि एक बार मरुथल की रात में टहलते हुए एकाएक... रात सुन्दर थी, तारों-भरी तो नहीं थी, पर कुछ तारे अवश्य थे क्योंकि दशमी का चाँद भी कुछ उलटा-सा झूल रहा था। सन्नाटा भरपूर था, बत्तियाँ भी कहीं नहीं दिखाई देती थीं क्योंकि एक तो बस्ती भी पास कहीं नहीं थी, दूसरे वे ‘दियाबाती ठप्’ के संकटकालीन दिन भी थे, जब लोग दिन छिपते-न-छिपते घरों में घुसकर मानो अन्धकार के प्र्रस्तार में अपने अस्तित्व का प्रसार लय कर देते थे... तो ऐसे में ही, एकाएक ही, मैंने जाना कि यह मरुथल भी तो उसी अस्तित्व के महासागर का एक रूपक है-उतना ही समर्थ रूपक जितना कि जलनिधि... चमत्कृत होने के लम्बे क्षण ने जब धीरे-धीरे मुझे अपने चंगुल से मुक्त किया, तब फिर सादृश्यों की लहरें मन में उमडऩे लगीं। मरु रेती में हवा से अँकी हुई लहरों के कई चित्र आँखों के आगे से दौड़ गये; हवा से लगातार लहर की तरह बदलते हुए रूप भी-क्या मरु भी उतना ही उद्वेलित नहीं होता जितना समुद्र! और जब होता है तब क्या वह भी उतना ही रूपकल्पक, रूप-स्रष्टा नहीं हो जाता जितना समुद्र? मरुथलों में कुछ-कुछ घंटों में बदल गये रूप मैंने देखे हैं-रेत की लहरें ही नहीं, रेत के ढूह और ढूहों के समूह जो एक जगह से हटकर दूसरी जगह जा जमे हैं-जैसे डाँगरों का एक झुंड एक जगह से उठकर दूसरी जगह जा बैठा हो... नलिनविलोचन जी ने रेत के ढूहों की तुलना बैठी बिल्लियों के साथ की थी-जहाँ तक सादृश्य की बात है वह संगत है, पर आकार-भेद के कारण एक कठिनाई उठ खड़ी होती है। मरुदेश में इतने बड़े-बड़े ढूह रातों-रात स्थानान्तरित होकर नया परिदृश्य बना जाते हैं कि उसे पहाडिय़ों का विचलन कहना अधिक संगत होगा।

तो सत्ता के अनन्त विस्तार का ही एक रूपक मरुथल भी हो सकता है जैसे कि सागर : और शायद इसीलिए मरुथल ने उस विस्तार के अपने दार्शनिक पैदा किये हैं जो आरण्यक ऋषियों से किसी तरह कम नहीं रहे होंगे। और यदि उन ऋषियों के हरे-भरे समृद्ध गृही जीवन के कारण इस तुलना को स्वीकार करने में कुछ कठिनायी होती हो तो मुनिजनों से तो उनकी तुलना की ही जा सकती है-मुनि तो वे सब थे भी और प्राय: मरुवत मौन रहने के भी अभ्यासी थे-वह उनकी साधना या तपस्या का एक रूप था। जैसे बिना दिग्दर्शक यन्त्रों के, केवल सहज ज्ञान के बल पर मरु पार कर लिया जाता है, वैसे ही ये मरुवासी मुनि सहज ज्ञान के सहारे सत्ता के महामरु को भी पार कर लेने की साधना करते थे : वह सरलतम जीवन और वह चरम सहजता ही उनका साध्य थी। यहाँ फिर एक रूपक का ही सहारा था-और इस बिन्दु पर विचार करके देखें तो जिसे हम ‘रूपक’ कहते हैं उसके यूनानी नाम का व्युत्पत्त्यर्थ ही था, ‘जो पार ले जाये’- और पार भी ऊपर के किसी सेतु से नहीं, जो नीचे से ही पार करा दे! यानी मेटाफ़ोर एक प्रकार का तीर्थ ही है- वे भी तो तिरकर पार हो जाने के स्थल ही होते हैं- ‘उतारे’ ही होते हैं?

मरुस्थल के विचित्र अनुभवों में एक मरुथलीय सीपी पाने का अनुभव भी है- एक सीपी ही नहीं बल्कि एक ढोंका जिसमें एक साथ बीसियों सीपियाँ और शंख शिथिल रूप में दीख रहे थे। जीववैज्ञानिकों ने बताया कि ये जीवाश्म या कि शिलित जीव अथवा जीव-गेह इस बात का प्रमाण है कि मरुथल भी लाखों बरस पहले एक सागर था : चाहे जिन भी कारणों से वह सूख गया और उसमें पलनेवाले जल-जीव सब जमकर पत्थर होते कीचड़ के दबाव से शिलित हो गये-तभी तो अभी पपड़ीले पत्थर की तहों में ये शिलित शंख और सीप मिलते हैं-और कभी-कभी उनके साथ शिलित सिवार या अन्य उद्भिज भी...यह तो रूपक का घनीकृत रूप हो गया। सागर, जो पहला रूपक था सूख गया और मरु बना; मरु जो दूसरे चरण का रूपक था अब हमें ये जीवाश्म और शिलित उद्भिज दे रहा है जो रूपकीकरण की तीसरी सीढ़ी हैं : प्रत्येक शिलित उद्भिज में कैसे वह ‘होने का सागर’ एक ज्वार-सा उमडक़र सब ओर घेर लेता है। ऐसे में तो सीपी को कान से लगाने की भी जरूरत नहीं रहती : एकाएक अस्तित्व के सागर के ‘प्लुत एकस्वर’ से हम घिर जाते हैं।

मरुदेश में मिली शिलित सीपी को भी मैंने कुछ कौतुक के भाव से कान को लगाकर देखा था : क्या इसमें भी सागर का स्वर सुना जा सकेगा? कौन-से सागर का? मरु-सागर का स्वर, जिसके शिलित कर्दम में वह शिलित सीपी पायी गयी? या कि उस बिला गये जल-समुद्र का जिसकी वह सीपी थी, जिसकी तरंगोर्मयों के साथ कभी वह सलील तिरी-उतरायी थी-उतरायी-इतरायी थी? क्या मरु स्वयमेव एक शिलित समुद्र नहीं है? या कि उसे समुद्र कहने-कहने में हमारा रूपक भी शिलित हो गया है? हमारी सारी भाषा ही तो अधिकांशत: शिलित रूपकों का समूह होती है : कवि-स्रष्टा लगातार ‘होने के सागर’ में डुबकियाँ लगाकर नए-नए शंख और सीपियाँ और मोती तक खोजकर लाता है, हम चमत्कृत भी होते हैं, पर हमारे चमत्कृत होते-न-होते वे शंख-सीपियाँ-मोती सब शिलित हो गये होते हैं : अनुभव का वह सागर ही शिलित हो गया है जिसमें कवि ने डुबकी लगायी थी। तब वह यह सारी शिलित सम्पत्ति हमारी ओर फेंककर फिर अपने शोध-कर्म में दत्तचित्त होता हे, अस्ति के सागर की नई साहस-यात्रा पर निकल पड़ता है। और उसके फेंके हुए वे सारे शिलित रूपक हमारी सामान्य भाषा की पूँजी बनकर जाते हैं। उसके नए काव्य-आविष्कार की प्रतीक्षा करते हुए भी हम पाते हैं कि हमारा विचार-भंडार समृद्धतर हो गया है, हमारी सम्प्रेक्षण-क्षमता बढ़ गयी है, हमारे संवाद में नई गहराई है और मानव-मात्र के आपसी सम्बन्धों की एक नई पहचान हमें एक-दूसरे के निकटतर ले आयी है। पुराण-कथा का लोभी राजा माइडास जो कुछ छूता था वह सोना हो जाता था-निष्प्राण और अन्तत: अप्रयोज्य सोना; पर कवि हमें जो कुछ दे जाता है वह पहले ही पत्थर होता और हम उसे अपनाते हैं तो लोभी-भाव से नहीं, इसलिए कि वे सारे पत्थर हमारे लिए रत्नों का ही काम देते हैं न सही श्रेष्ठ और अमूल्य रत्नों का, दूसरे दर्जे के ‘नीम-दामी’ रत्नों का काम ही सही-पर उन्हीं के सहारे हम सब ‘पत्थरों के सौदागर’ बनते जाते हैं, हमारा व्यापार भी बढ़ता जाता है और हमारी साख भी... हमारे पत्थर ‘परस-मणि’ तो नहीं होते-उस मणि की खोज में तो हमारा कवि गया ही होता है और हम उसकी लम्बी प्रतीक्षा में रहते ही हैं-और यह सारा व्यापार भी एक रूपक ही है, लेकिन समझने की बात यह है कि यह रूपक भी स्वयं शिलित होता हुआ हमें शिलित होने से बचाता रहता है। वही असल में इस रूपक-रचना की प्रक्रिया का असली रहस्य है : यह प्रक्रिया एक जीवित, स्पन्दयुक्त प्रणाली है जिसमें से लगातार वह रस प्रवहमान रहता हे जो हमें अस्ति के महासागर से जोड़े रहता है। नहीं तो उसके शिलित होने के साथ हमारी सारी सर्जनशीलता भी शिलित हो जाती-हम स्वयं ही शिलित हो जाते। शीत-निद्रा में पशुओं का रक्त ठंडा हो जाता है, जमता भी है; पर यह जमकर हिममय होना शिलित होना नहीं है। ऐसी शीतनिद्रा पर्याय (आह, यह भी एक रूपक है!) हमारे जीवन में भी होता है : समाज भी शीतनिद्रा में डूबते हैं, संस्कृतियाँ भी शीतनिद्रा लेती हैं-पर यह तो एक प्रकार का कायाकल्प होता है, पुनरुज्जीवन होता है, शिलित होना नही होता! शीतनिद्रा के बाद हिमालयी रीछ और गिलहरी नई स्फूर्ति के साथ क्रियाशील होते हैं; शिलित हो गयी सीपी दोबारा कभी उस सागर का स्वर नहीं सुनेगी जिसके साथ उसकी सम्बन्ध-प्रणाली भी शिलित हो गयी है जैसे कि वह सागर भी मरु में शिलित हो चुका है... हम चाहे उस सीपी के सहारे अस्ति के उस महासागर का स्वर सुन लें जिसके रूपक सागर और मरु हैं; पर हम भी वैसा कर पाते हैं तो इसीलिए कि रूपक-रचना की हमारी प्रणाली अभी जीवन्त और स्पन्दयुक्त है...

जापान में रूपक-रचना की एक स्वतन्त्र पद्धति है जो कला के रूप में विकसित हुई है। शिलित रूपकों द्वारा भाषा की अभिवृद्धि की बात हमने की, पर जापान की रूपकल्पी प्रतिभा शायद भाषिक अभिव्यक्ति को इतना महत्त्व नहीं दती रही। हो सकता है इसका कारण बौद्ध जैन (ध्यान) परम्परा में रहा हो : ‘तथता’ की खोज सहज ही भाषा को एक तरफ़ हटा देती है और अन्तर्दीप्त मौन का सहारा लेती है। यह भी हो सकता है कि जैन परम्परा में इसका मूल न रहा हो, जैन ने केवल उस जड़ को सींचा हो जो उससे पहले ताओ की दीक्षा के साथ जम चुकी थी। जो हो, जापान ने भाषिक रूपक की अपेक्षा दृश्य रूपकों को ही अधिक महत्त्व दिया। यों जापानी भाषा की अपनी विशेषता है कि यह निर्विकल्प अर्थ की नहीं, अर्थ-श्रेणियों अथवा अर्थ-धाराओं की साधना करती है। जापानी भाषा में स्पष्ट और दो-टूक बात कहना बहुत कठिन है क्योंकि वह कभी वांछित या साध्य रहा ही नहीं : अर्थध्वनियों, प्रतिध्वनियों और मूच्र्छनाओं की सृष्टि और सम्प्रेषकता में ही उसने अपनी शक्ति मानी है। इस प्रकार रूपक वहाँ भी है तो, और वह अनेक-स्तरीय भी होता है; पर उनकी अनेक-स्तरीयता में वैसी शक्ति नहीं होती जो पुराण के प्रतीकों अथवा अभिप्रायों की, मिथकीय कथन की अनेकायामिता में होती है। मिथकीय उक्ति की शक्ति इसमें होती है कि वह अनेक आयामों में अर्थ-सम्प्रेषण करती है; किसी भी आयाम में वह अर्थ आवृत्त तो हो सकता है, पर धुँधला या सन्दिग्ध नहीं होता। पर जापानी संस्कार को वह धुँधलका पसन्द है जो वहाँ के प्राकृतिक परिवेश का भी सहज अंग है : बात की हल्की व्यंजनाएँ कई स्तरों पर हों पर कोई एक स्पष्ट या प्रधान या अभिधेय अर्थ न पाया जा सके-उसके लिए यह उसकी चारुता का प्रमाण है। मन्दिर नहीं दीखता, घनी धुन्ध में उसकी घंटा-ध्वनि का सुन पडऩा भी सन्दिग्ध हो जाता है-क्या हम सचमुच सुन रहे हैं या कि सुनने का आभास ही वहाँ है? जापानी का तो ऐसा सुनना ही श्रेष्ठ सुनना है : इसमें देखना ही सुनना हो गया है, और सुनना ही देखना।

पर हम भाषा की गौणता जताते-जताते इस बात को इतना तूल दे गये। कहना यह चाहते थे कि जापानी संस्कार दृश्य रूपक को अधिक महत्त्व देता है : और उसका शायद सबसे विलक्षण उदाहरण उसके सागर के रूपक हैं। क्योतो के एक मठ का पत्थर-कंकड़ों से बना हुआ सागर-दृश्य जगद्विख्यात है : पत्थर के ढाँकों के द्वारा प्रतीकित द्वीप और पर्वत, छोटे टुकड़ों के द्वारा प्रतीकित समुद्र और तरंग और फेनोर्मियाँ : एक शिला-निर्मित, शिलीभूत सागर के द्वारा अस्तित्व के महासागर का रूपक प्रस्तुत किया जाता है और उसे बदलकर फिर से रूपायित कर सकने में कितने साधकों की कितनी ऊर्जा व्यय होती है! ऊर्जा तो स्वाभवत: एक अस्थिर, चंचल, गतिशील, लहरिल प्रवाह है : उसे यों साधकर एक निश्चल रूप दे देना भी बड़ी साधना है-बड़ी कला-साधना भी है, जीवनानुशासन तो है ही। पर अन्ततोगत्वा तो उसकी पहुँच भी एक रूपक तक ही है : साधक कलाकार एक रूपक ही तो रच पाता है। और वह रचना भी एक सचेत कर्म हे, ‘चेष्टित’ कहकर हम उसे घटिया स्तर पर न भी लाना चाहें तो भी। पर सागर और मरुथल तो ऐसे सचेत कलाकर्मी नहीं हैं। वे तो रूप-स्रष्टा हैं, अधीर और अनाशुतुष्ट स्रष्टा हैं, तभी तो रचने के साथ मिटाते भी चलते हैं! सागर के साथ तो यह भी पता नहीं चलता कि कौन-सा ‘बनना’ है और कौन-सा मिटना- सारी प्रक्रिया ही इतनी द्रव और त्वरायुक्त होती है! हाँ, मरुथल की कलासृष्टियाँ तो मिटने से पहले पहचान में भी आ जाती हैं; तभी लगता है कि उसकी रूप-चेतना सागर की अपेक्षा प्रबलतर है-वह तो मरु में भटककर प्राण गँवा देनेवाले जीवन-जन्तुओं की सूखी हड्डियों को भी कुछ रेत से ढँक और कुछ उघाडक़र ठीक-ठिकाने जमा कर एक सन्तुलित कलाकृतियों का रूप दे देता है! फिर जल्दी ही वह उसे बदल भी देता है, पर तब तक हम उसे पहचान चुके होते हैं, उसका रूपकार्थ पा चुके होते हैं-चाहे वह रूपकार्थ हमारा ही होता हे, मरुथल का नहीं, कयोंकि वह तो उसे तब तक मिटा चुका होता है, रद्दी कर चुका होता है!

सीपी में सागर का स्वर सुनाई देता है, हाँ, और हमारा सारा जीवन ही तो एक सीपी है, सात्विक, सत्य, रंगों-भरी सीपी, जिसके द्वारा हम सागर का नहीं, सागरों के स्वर सुन पाते हैं-जो सागर हममें मिलकर एक हो जाते हैं। उनका हममें मिलना, हमारे द्वारा उस मिलन का पहचाना जाना ही शायद हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है-इतनी बड़ी कि इस रूपक को थोड़ा और बढ़ाकर हम कह सकते हैं कि वह हमें हो जाती है तो हमने सीपी में सागर ही नहीं सुन लिये होते, हमने उसमें मोती भी पा लिया होता है।

3.छाया का जंगल

यायावरी यात्राओं के सुखों में एक सुख तो यह है ही कि निकलें किसी चीज़ की खोज में और मिल जाये कोई बिलकुल दूसरी ही चीज़। लेकन जीवन-भर यायावरी करते रहकर भी उस कल्पनातीत आविष्कार के लिए मैं तैयार नहीं था जो इस बार राम-जानकी यात्रा के दौरान अकस्मात हुआ। यह तो जानता था कि रामायण के चरित्रों से सम्बद्ध जिन स्थलों की खोज में निकला हूँ उनके ऐसे अवशेष तो क्या ही मिल सकते हैं जिन्हें ‘ऐतिहासिक’ कहा जाए; और यह भी जानता था कि ऐसे बहुत से स्थल मिल जाएँगे जिनका रामायण से कोई वास्तविक सम्बन्ध रहा हो या न रहा हो, लेकिन उन्हें देखकर एकाएक यह मानने को जी होने लगे कि कुछ सम्बन्ध जरूर रहा होगा! खासकर नेपाल तराई के जंगली और नदी-नालों-भरे प्रदेश में से गुजरते हुए तो मन ऐसा हो गया था कि किसी भी स्थल से जुड़ी किसी असुर की, गन्धर्व की, अप्सरा की, किरात अथवा नागकन्या की गाथा सुनकर एकाएक यह प्रतिक्रिया न होती कि यह सब मनगढ़न्त है, ऐसा वास्तव में हुआ नहीं होगा, केवल आदिम-मानव की कच्ची कल्पना ने ये किस्से गढ़े होंगे। निश्चय ही स्थलों का अपना जादू होता है। ठोस व्यावहारिक आदमी भी ऐसे स्थलों पर पहुँचकर पाता है कि उसकी कल्पना चेत उठी है। फिर उसे अपनी संस्कृति के पुराण की ही बातें क्यों, दूसरी संस्कृतियों के पुराण भी सच्चे जान पडऩे लगते हैं-उनके भी वन-देवता और लता-बालाएँ और नदी-अप्सराएँ देखते-देखते उसके आगे रूप लेने लगती हैं।

वाल्मीकि नगर में ठहरे हुए हम लोग जंगल में वे सब स्थल देख रहे थे जो हमें ‘वाल्मीकि आश्रम’ के नाम से दिखाये गये थे। उन्हें देखकर वही दोहरी प्रतिक्रिया हुई थी-एक तरफ तो यह कि दिखाये गये सारे अवशेष बहुत पुराने होंगे तो पूर्व-मध्य-काल के होंगे, उससे ज्यादा पुराने नहीं हो सकते; दूसरी तरफ़ उतनी ही प्रबल यह प्रतीति कि ये स्थल तो निश्चय ही ऐसे हैं कि यहाँ कभी ऋषि का आश्रम रहा हो। न सही ये ही प्रस्तर-खंड और भग्नावशेष-पर स्थलों की अपनी भी तो रहस्यवेष्टित ऊर्जा होती है, जिसके कारण बार-बार उन्हीं स्थलों पर फिर दूसरे आश्रम और तीर्थ और मन्दिर बनते हैं...अपने दल के साथ इस प्रस्तावित वाल्मीकि आश्रम की सैर करके मन-ही-मन तय किया कि अगले दिन बड़े सवेरे अकेले निकलकर आएँगे और हो सका तो मनोयोग करके अपने को उन ऊर्जा स्रोतों से जोड़ेंगे। मन में कहीं ऐसा विश्वास तो था ही (और अब भी है) कि ऐसे किसी स्थल पर से गुजरूँगा तो जरूर उसकी ऊर्जा-रेखाओं के जाल-में प्रवेश करने का बोध मुझे हो जाएगा...
अगले दिन बड़े सवेरे अकेले ही फिर उधर को निकल आया। कुछ कोहरा था, सूर्योदय अभी नहीं हुआ था, लेकिन भोर का प्रकाश कोहरे को ही एक निरन्तर बदलते हुए रहस्यमय छायाचित्र का रूप दे रहा था, बल्कि रह-रहकर मुझे सन्देह हो आता था कि कहीं मैं भटक तो नहीं गया हूँ? अपने जाने तो उसी परिचित रास्ते से आया था, पर सब कुछ नया ही जान पड़ रहा था।

कैमरा भी मैं साथ लाया था, लेकिन यह तो समझ में आ ही गया था कि अगर कोहरा ऐसा ही रहा तो फोटो लेने का कोई सवाल ही नहीं होगा। बल्कि चित्रकार होता तो कोहरे में जब-तब दीख जानेवाली आकृतियों का जापानी ढंग का चित्र तो बना भी ले सकता। कैमरे से वह भी सम्भव नहीं है। कहने को तो फोटोग्राफ भी काले और उजले, प्रकाश और छाया के अंकन का नाम है, पर कलाकार की आँखें जो देखती है वह कैमरा नहीं देख सकता। क्योंकि आँख तो प्रकाश और छाया का खेल देखती हे, एक जीवन्त और गतिमान लीला, जबकि कैमरा केवल एक स्थिति का आकलन करता है।

एक बार मैंने कैमरा उठाकर उसके भीतर से झाँका भी, जानते हुए कि व्यर्थ का काम कर रहा हूँ। लेकिन फिर उसे झूलने देकर तेज कदमों से कोहरे की ओर बढ़ा।

कोहरे को मैंने पा लिया और सब ओर से उससे घिकर जब जाना कि अब मुझे वह रास्ता भी नहीं दीख रहा है जिससे मैं वहाँ तक आया हूँ तब मन-ही-मन प्रसन्न भी हुआ। मानो अपने को ही मैंने जंगल की तरफ़ से कहा, ‘‘अब बोलो, बच्चू, अब तो पूरी तरह जंगल और कोहरे के काबू में हो-हो कि नहीं? कोहरा उठेगा तब किसी तरफ को निकल जाओगे, लेकिन अभी तो मेरे काबू में हो और जो मैं मनवाऊँगा तुम्हें मानना होगा।’’

यों तो मेरी मन:स्थित ऐसी थी कि बिना धमकी के भी जो मनवाया जाता मान लेता, लेकिन जब चुनौती दी ही गयी तो कुछ कहना या कि करना ज़रूरी हो गया। मैं फिर तेजी से किसी एक तरफ़ को लपका-जैसे कि यों कहीं पार निकल ही आऊँगा।

झरे पत्तों को रौदता हुआ और कहीं-कहीं ठोकर खाता हुआ मैं सौ-डेढ़ सौ कदम चला हूँगा कि सामने अनगढ़ पत्थरों का एक ढेर पाकर अटक गया। पहले तो सोचा कि अगल-बगल देखूँ कि ढेर कितना बड़ा है और इसके पास से निकल जाने का रास्ता है कि नहीं। फिर इरादा बदलकर ढेर के एक बड़े पत्थर पर बैठ गया आखिर थोड़ी देर में तो सूरज निकलेगा ही, कोहरा कुछ हटेगा तब आगे की देखी जाएगी।

थोड़ी ही देर बाद रोशनी भी कुछ बढ़ी और कोहरा भी नीचे से कुछ उठा। मैंने सोचा था कि कोहरा धूप के कारण ऊपर से गलना शुरू करेगा। लेकिन हुआ उलटा-झरे हुए पत्तों की नमी से वह नीचे से कुछ गला और मुझे मानो धुनी हुई रूई की एक बड़ी दीवार में जहाँ-तहाँ सेंध-सी दीखी। मैंने अनुमान किया कि उसमें कहीं बँसवट है। बाँसों का इतना बड़ा जंगल होगा तो कहीं आसपास वन-जातियों में से किसी का कोई गाँव भी होगा। ठीक है, यहीं बैठे-बैठे सूर्योदय की प्रतीक्षा की जाए...

धुनी हुई रूई के पहाड़ में जो सुरंगें मुझे दीखी थीं उनमें से एक के परले सिरे पर एकाएक रोशनी बढ़ गयी, जैसे कि सूर्य की पहली किरण वहाँ झरी; और उसमें मुझे एक छोटी मानव-आकृति दीखी। यहाँ की वन-जातियों में कुछ बौने कद के भी होते हैं। लेकिन इतने छोटे? पुकारूँ? नहीं। मैंने पास से एक कंकड़ उठाकर फिर पत्थर पर गिरा दिया। शब्द से चौंककर वह आकृति वहीं ठिठकी। फिर उसने मुझे देख, दो कदम उस सुरंग के भीतर बढक़र उसने अटपटी भाषा में मुझसे कहा, ‘‘इदर जाएगा नईं, ई छाया का जंगल। तुमारा छाया छीन लेगा।’’ वह आकृति फिर दो कदम पीछे हटी और सुरंग के मुँह से एक तरफ़ होकर अदृश्य हो गयी।
छाया का जंगल। छाया छीन लेगा। यानी?

ठीक क्या आशय उसका रहा होगा, यह जानने का कोई उपाय नहीं था, लेकिन बचपन में (कब?) सुनी या पढ़ी परी-कथाओं की याद आने लगी। ऐसा तो कभी नहीं सुना था कि छायाओं का कोई जंगल होता होगा जिसमें छाया छिन जाती होगी, लेकिन ऐसे लोकों की बात ज़रूर पढ़ी-सुनी थी जिसमें छायाएँ ही बसती हैं, जिनमें जन्मान्तर माननवाली जातियों की मरणोत्तर किसी लोक की कल्पना इसी तरह रूपायित हो सकती होगी। और, हाँ, ऐसा भी तो कहीं पढ़ा या सुना था कि छाया ग्रस लेती है। छायाग्रासिनी- राहु की माता सिंहिका का नाम भी तो छायाग्रासिनी बताया गया है... लेकिन उसका चाक्षुष आधार तो स्पष्ट है। वह तो छाया को ग्रसने की बात नहीं, छाया के द्वारा ग्रसने की बात है। किसी की छाया पड़ जाती है, छाया ही कुछ ग्रस लेती है-यह थोड़े ही कि छाया को ही ग्रस अथवा छीन लिया जाता है! यों तो सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण भी (वैज्ञानिक दृष्टि से भी) छायाग्रास ही हैं; चन्द्रमा अथवा पृथ्वी की छाया सूर्य अथवा चन्द्रमा को ग्रस लेती है। स्वयं छाया ही ग्रसी जाए, छाया छिन जाए, यह तो आधुनिक कल्पना ही जान पड़ती है-’छायारहित आदमी’-छाया न रहने के कारण अधूरे या दुर्बल या या वेध्य-कल्पना तो यह भी पौराणिक कोटि की ही है, लेकिन हो सकती है शायद आधुनिक मानव की ही। आधुनिक पुराण-वाह! यह विरोधाभास गले से नहीं उतरता। तभी तो ऐसी स्थिति में पडक़र इधर लोग ‘मिथक’ की बात करने लगे हैं! मिथक-ग्रीक का मिथ भी और अपना मिथ्या भी-और मैधा का थकना भी!

मैं वहीं बैठकर कोहरे के और विरल होने की प्रतीक्षा करने लगा। धीरे-धीरे बँसवट के आकार भी स्पष्ट होने लगे, पर दीखा कि घने झुरमुट के बीच दो-तीन सुरंगें-सी हैं जो शायद आने-जाने के रास्ते का काम देती होंगी। इन्हीं में से एक के आगे एक रोशनी का वृक्ष दीखता था जहाँ शायद बाँसों के बीच आकाश की ओर खुली जगह भी होगी।

कोहरा उठने के साथ-साथ मेरा शरीर भी अलसाने लगा था और मेरे विचारों की दौड़ भी अनजाने कुछ धीमी; लेकिन साथ ही मधुरतर होती गयी थी-जैसे कि धूप की एक किरण मेरे मन की ओर भी भटक आयी हो। मैंने कैमरा अपने पास चट्टान पर रख दिया और अधखुली आँखों में बँसवट के भीतर प्रकाश की आँख-मिचौनी देखने लगा।

‘छाया छीन ली जाती है।’ नया मनोविज्ञान कहता है कि चित्त के दो पक्ष होते हैं, जिनमें से एक छाया पक्ष है। तो छाया का छिन जाना चेतना का ही पंगु हो जाना है। छाया नहीं रहती तो धीरे-धीरे सूखकर मर जाते हैं। क्या यह चेतना के ही जड़ हो जाने का ही रूपक है? लेकिन क्या छाया के छिन जाने के शाप से निस्तार कोई नहीं है? होना ही चाहिए... छाया आखिर छाया-पक्ष ही तो है-उत्तर पक्ष; तो पूर्व पक्ष भी तो होगा ही! कोई सत्ता पहले होनी चाहिए जिसकी छाया भी होती है। छाया छिन जाती है या ग्रस ली जाती है तो सत्ता तो बनी रहेगी। और सत्ता पंगु होकर भी जरूर किसी-न-किसी उपाय से अपना स्वास्थ्य फिर पा सकती होगी-अपने को समग्र कर ले सकती होगी। मेरी आस्तिकता ही सही- मेरे लिए तो सत्ता की परिभाषा में ही यह निहित है कि वह आत्ममृत है, अपनी अंग-क्षति को भी स्वयं पूर सकती होगी।

छाया। या याहें कहें कि छाया है तो सत्ता ही नहीं, एक सूर्य भी है। अगर हम छाया की ओर ही न मुड़े रहें, घूमकर उस प्रकाश-स्रोत की ओर देखें, सूर्य को खोजें तो शायद बात समझ में आ जाएगी। छाया का छिन जाना सूर्य का ही ओट हो जाना है। और इस रोग का इलाज छाया की खोज में नहीं, सूर्य के संस्पर्श में है।

क्या ‘छाया का जंगल’ ही तब हमें कहना है? क्या यही असल में जंगल नहीं है कि हम छाया की खोज में उस आलोक-पुंज से विमुख हो जाएँ जो असली प्राण-स्रोत है?

हर पौराणिक अभिप्राय का एक रूपक होता है। यह रूपक मानो एक बड़े सत्य का मुखौटा है। मुखौटे की ओट हम उस सत्य को देख लेते हैं, अपलक उसकी ओर ताक सकते हैं, नहीं तो उसकी चौंध हमें अन्धा कर दे। यहाँ रूपक क्या है? वह छिपा हुआ सत्य क्या है?

एक तो प्रेम है जो सूर्य है-उसके घाम में जीना एक आलौकित जीवन है-और उससे एक असन्दिग्ध छाया भी पड़ती है। जो प्रेममय है उसकी यह छाया ही उसी के समक्ष उसके अस्तित्व का प्रमाण देती है। नहीं तो वह शायद एकान्त रूप से आत्म-विस्मृत हो जाए। उसकी छाया ही उसे संज्ञान दिलाती है, बोध कराती है कि वह है। इस प्रकार प्रेममय जीवन का भी अहं है जो उसकी छाया है और जो उसे आत्मचेतन कर देता है।

मुझे लग रहा था कि मैं आश्चर्यजनक स्पष्टता के साथ सोच रहा हूँ। लेकिन मुझे यह भी लग रहा था कि मेरा शरीर ही नहीं, मेरा मन भी अलसाने लगा है, मेरा सोचना बड़ा शिथिल हो गया है। क्या मैं ऊँघ रहा हूँ? लेकिन विचार एक अदृश्य पहाड़ी सोते सरीखे लगातार लेकिन अदृश्य अबाध गति से बहते ही जा रहे थे-क्या और घनी छाया की ओर या कि प्रकाश की ओर?

वह जो बँसवट में दो सुरंगों का सन्धि-स्थल था, वहाँ पर थोड़ा खुला प्रकाश झलकने लगा था। मुझे जान पड़ा कि उसमें एक धुँधली आकृति टहल रही है- इस पार से उस पार, फिर पलटकर उस पार से इधर...क्या यह वही व्यक्ति है जिसने मुझे पहले चेतावनी दी थी, ई छाया का जंगल, इसमें जाएगा नहीं? लेकिन नहीं, यह अत्यन्त जीर्णकाय लडख़ड़ाता हुआ व्यक्ति तो कोई दूसरा है। उस धुँधले प्रकाश में उसकी छाया नहीं बनती, लेकिन वही मानो एक छाया-सा डोल रहा है। क्षण-भर के असमंजस के बाद मैंने उसे पुकार ही लिया, ‘‘भाई, ओ भाई!’’

क्या उसने सुना नहीं या अनसुनी कर दी? एकाएक मुझे लगा कि मेरी आवाज उस तक पहुँच नहीं सकती-या शायद पहुँची नहीं। जैसे मंच पर अभिनेता समाज की प्रतिक्रिया जानता भी है, सुनता भी है, लेकिन क्योंकि अभिनेता होने के नाते एक दूसरे जगत का प्राणी होता है, एक दूसरे समय में जीता है इसलिए छुआ नहीं जा सकता... मुझे लगा कि मैं सचमुच मंच पर ही एक अभिनय देख रहा हूँ-बल्कि देख ही नहीं, किसी अतीन्द्रिय चेतना से सुन भी रहा हूँ; समझ भी रहा हूँ कि मंच पर क्या हो रहा है।

एक दूसरी छाया-आकृति भी एकाएक उस प्रकृत मंच पर प्रकट हो गयी। एक नारी आकृति। पहली छाया ने उसकी ओर उन्मुख होकर और दीन भाव से कहा-कहा मुद्राओं से ही, लेकिन मुझे लगा कि मैं उसकी बात भी और उसमें थरथराती हुई निराशा भी स्पष्ट सुन सकता हूँ-’’मेरा अन्त समय आ गया है, मेरा शाप अब पूरा होनेवाला है। छाया छिन गयी थी और अब मैं मर जाऊँगा, लेकिन मरने से पहले एक बार-अन्तिम बार-मैं उसे देख लेना चाहता था जिसे...।’’

मंच पर उसका वाक्य अधूरा रह गया, लेकिन मैंने माना उसका शेषांश भी सुन लिया, ‘‘जिसे मैंने प्यार किया था।’’

स्त्री आकृति ठिठक गयी थी और उसका हाथ एक विचित्र मुद्रा में बोलने वाले की ओर बढ़ा हुआ था-उस मुद्रा में करुणा भी थी, वात्सल्य भी था और मानो अतृप्ति की एक पुकार भी थी। दूसरी आकृति लडख़ड़ाते हुए मानो उसी की परिक्रमा करने का यत्न कर रही थी।
अन्तिम बार...लेकिन उसने क्या कहा था-’अन्तिम बार’ या ‘अन्तिम प्यार?’ पर इस बीच अनदेखे ही उस खुली जगह प्रकाश बढ़ गया था। स्त्री-आकृति नेबिना कुछ कहे दूसरे हाथ से एक ओर इशारा किया। पुरुष ने ठिठककर उधर देखा और कुछ चौंका-सा; उसके चौंकने के साथ ही मैंने भी देखा-पुरुष कुछ स्पष्ट छाया वहाँ देख रहा था और उसकी ओर स्त्री ने इशारा किया।

प्रकाश थोड़ा और बढ़ गया; छाया और स्पष्ट हो गयी। पुरुष धीरे-धीरे सीधा खड़ा हुआ, मानो प्रकाश की झरन ने उसके भीतर नई शक्ति भर दी है, और फिर उसकी देह एक नई लय में डोलने लगी। मैंने पहचाना कि यह वहीं की वन जाति के एक युगल नृत्य की विलम्बित लय है।

नारी के पैर भी थिरक उठे। धुँधलके में मुझे लगा था कि उसके पैरों में मोटे कड़े हैं, लेकिन अब मुझे घुँघरू का स्वर सुनाई दिया। दोनों आकृतियों के बढ़े हुए हाथ मिले और बढ़ते हुए प्रकाश में दोनों उसकी मन्द्र लय पर नाचते हुए सुरंग के भीतर की ओर ओझल हो गये। मैंने जाना कि उस व्यक्ति का शाप अब फलेगा नहीं, वह जिएगा-उसके प्यार का प्रकाश उसे एक स्पष्ट छाया भी देता रहेगा।
‘‘हम जो बोला तुम देखा?’’

यही वह स्वर है जिसने पहले मुझे जंगल में बढऩे से रोका था। लेकिन अबकी बार वह स्वर दूसरी तरफ से आया था-मेरे पीछे बिलकुल निकट से। मैं मुड़ा तो वह वनवासी बूढ़ा मेरी ओर ताकता हुआ मुस्करा रहा था। मैंने अपने स्वर को कुछ रोबीला बनाते हुए कहा, ‘‘ऐसी अधूरी बात से नहीं चलेगा। हमको पूरी बात समझाओ।’’
उसने कहा, ‘‘तुमने अभी देखा, और क्या समझेगा?’’

स्पष्ट था कि उस पर कोई रौब नहीं पड़ा है और वह मानो जानता है कि मैंने अभी कुछ क्षण पहले क्या देखा था। मैंने फिर विनय से कहा, ‘‘जो मैंने देखा वह सब तो तुमको मालूम है। उसी को तो समझाने को कह रहा हूँ।’’

‘‘समझाने से नहीं समझता। जो समझता ओई समझता।’’ वह थोड़ी देर चुप रहा और मैंने भी चुपचाप प्रतीक्षा करना ही उचित समझा। थोड़ी देर बाद जब लक्ष्य किया कि मैं कुछ पूछ नहीं रहा हूँ, लेकिन उत्सुक भाव से एकटक उसकी ओर देख रहा हूँ। तो वह फिर बोलने लगा। जो कुछ उसने मुझे बताया उसका सार यह है कि बँसवट के भीतर उस प्रकृत मंच पर जिन दो व्यक्तियों को मैंने देखा था वे बहुत पहले हुए थे-कई पीढिय़ों पहले। लेकिन वे अभी जीते हैं-वे तो कभी मरेंगे नहीं। उनकी छाया कभी धुँधली हो जाती है लेकिन कभी मिटती नहीं न वे दोनों कभी मरेंगे, न उनका प्रेम कभी मरेगा, न उनकी छाया कभी मिटेगी। वन-जातियों के प्रेमी जन भी कभी-कभी उनको देखने आते हैं। हर किसी को या हमेशा वे नहीं दीखते, लेकिन उनको देखना बहुत शुभ माना जाता है-बहुत बड़ा सौभाग्य होता है। अब भी किसी भी दिन सवेरे-सवेरे जब जंगल में कोहरा उठता है तब जगह-जगह घनी छाया के बीच सुनहले प्रकाश के चक्कर दीख जाते हैं-वनवासी लोग जानते हैं कि ये ही वे घेरे हैं जिनके भीतर वह प्रेमी जोड़ा नाचा था। जब तक उस जंगल में सुनहली धूप के ऐसे घेरे बनते रहेंगे, धूप-छाँव की ऐसी आँखमिचौनी होती रहेगी, तब तक वह जोड़ा जिएगा और वहाँ नाचेगा और प्रेमीजन उसी तरह देखने आते रहेंगे।

दूर कहीं से एक बड़ी हल्की-सी कूक मुझे सुनाई दी और मानो हवा के कारण बह गयी। फिर मानो मादल की ढब-ढबाढब-ढब सुनाई दी और वह भी उसी तरह हवा के स्वर में लय हो गयी। लेकिन उस बूढ़े की एडिय़ाँ मानो उसी अनसुनी लय पर थिरक उठी थीं। मैंने पूछा, ‘‘तुम नाचने जाएगा?’’ उसने खीसें निपोर दीं। थोड़ी देर बार बोला, ‘‘सब्बी नाचता।’’

मैंने जाना कि वह अब चल देगा, कि यह विदा का क्षण है, लेकिन फिर भी उसे अटकाने की नीयत से मैंने कहा, ‘‘लेकिन मैंने तो उस जोड़े को नाचते देखा।’’ और मैंने बँसवट की ओर इशारा किया।

वह एक उजली किन्तु स्वरहीन हँसी हँसा, फिर बोला, ‘‘तो तुम्हारे लिए भी सुभ। तुमारा बाग्य बहुत अच्छा। तुम बी जिएगा।’’ तनिक रुककर उसने जोड़ा, ‘‘तुम बी नाचेगा।’’ वह वैसी ही हँसी फिर हँसा-उजली, रवहीन, कौतुक-भरी, कुछ चिढ़ाती हुई, और मुडक़र इतनी फुर्ती से जंगल में अदृश्य हुआ कि मैं क्षण-भर सोचता ही रह गया कि क्या वह सचमुच वहाँ था भी।
लौटकर ठिकाने पहुँचा तो सहयात्रियों नेकन्धे पर लटका हुआ झोला देखकर पूछा, ‘‘लाये कुछ? फोटो के लिए ख़ास कुछ मिला?’’
मैंने कहा, ‘‘हाँ, मिला तो, लेकिन अभी तो डेवलप होगा तभी नतीजा पता लगेगा। लेकिन जो लाया वह कैमरे में बन्द नहीं है।’’
‘‘तब फिर?’’
‘‘यहाँ है।’’ कहकर मैंने एक उँगली से अपने माथे की ओर इशारा किया।

सहयात्रियों ने कुछ ठंडे पड़ते हुए स्वर में कहा, ‘‘ओह! कवि की बात। हम तो समझे थे कि कोई बड़ा फोटो लेकर आये होंगे।’’

मैंने बात के सिलसिले की परवाह किये बिना एक दूर से आती हुई गूँज दोहरा दी-’’तुम बी जिएगा। तुम बी नाचेगा। सब्बी नाचता।’’