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Wednesday 17 August 2016

BEST SHAYARI IN HINDI BY NAZEER AKBARABAADI

डरो बाबा
बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥

व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
                                                               नज़ीर अकबराबादी

Monday 15 August 2016

HINDI POMES BY BHAGVATI CHARAN VERMA

पतझड़ के पीले पत्तों ने 

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !
                                          भगवतीचरण वर्मा

Wednesday 10 August 2016

BEAUTIFUL SHAYARI

निगाहो दिल का अफसाना
निगाहो दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया सहर या वक्त-ए-शाम आया ।।
ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकीं दिल का मुकाम आया ।
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बाला-ए-बाम आया ।
इसे आँसू न कह एक याद अय्यामे गुलिस्‍ताँ है,मेरी उम्रे रवां को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।
बरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया  
                                      आनन्‍दनारायण मुल्‍ला

सृजन का दर्द 

अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है
                         कन्हैयालाल नंदन

Monday 1 August 2016

HINDI SHAYARI IN HINDI

चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल जलाएँ
जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएँ
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ
किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, ना-मिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएँ
कोई इनका गीत गाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ
                        faiz-ahmad

Tuesday 26 July 2016

DESH BHAKTI SHAYARI IN HINDI

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद
कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए
जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं
                        faiz-ahmad

Sunday 17 July 2016

AAG KI BHEEK BY RAMDHARI SINGH DINKAR

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

                                                      --Ramdhari Singh Dinkar

Thursday 9 June 2016

GAZALS IN HINDI FONTS

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो

बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं

तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता

मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें

इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश

हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा

ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

Monday 23 May 2016

SARVESHWAR DAYAL SAXENA

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं 
              सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwar Dayal Saxena)

Wednesday 18 May 2016

DUSHYANT KUMAR( AAG JALNI CHAHIYE)

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
                                 - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

Thursday 5 May 2016

MADHUBAALA HARIVANSH RAI BACHCHAN

1

मैं मधुबाला मधुशाला की


मैं मधुशाला की मधुबाला!


मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,


मधु के धट मुझपर बलिहारी,


प्यालों की मैं सुषमा सारी,


मेरा रुख देखा करती है


मधु-प्यासे नयनों की माला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

2

इस नीले अंचल की छाया


में जग-ज्वाला का झुलसाया


आकर शीतल करता काया


मधु-मरहम का मैं लेपन कर


अच्छा करती उर का छाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

3

मधुघट ले जब करती नर्तन,


मेरे नूपुर के छम-छनन


में लय होता जग का क्रंदन,


झूमा करता मानव जीवन


का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

4

मैं इस आँगन की आकर्षण


मधु से सिंचित मेरी चितवन,


मेरी वाणी में मधु के कण


मदमत्त बनाया मैं करती


यश लूटा करती मधुशाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

5

था एक समय, थी मधुशाला,


था मिट्टी का घट, था प्याला


थी, किन्तु, नहीं साकीबाला,


था बैठा ठाला विक्रेता


दे बंद कपाटों पर ताला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

6

तब इस घर में था तम छाया


था भय छाया, था भ्रम छाया,


था मातम छाया, गम छाया,


ऊषा का दीप लिए सर पर,


मैं आई करती उजियाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

7

सोने की मधुशाना चमकी


माणित द्युति से मदिरा दमकी,


मधुगंध दिशाओं में चमकी


चल पड़ा लिए कर में प्याला


प्रत्येक सुरा पीनेवाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

8

थे मदिरा के मृत-मूक घड़े


थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,


थे जड़वत् प्याले भूमि पड़े,


जादू के हाथों से छूकर


मैंने इनमें जीवन डाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

9

मुझको छूकर मधुघट छलके,


प्याले मधु पीने को ललके 


मालिक जागा मलकर पलकें,


अँगड़ाई लेकर उठ बैठी


चिर सुप्त विमूर्च्छित मधुशाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

10

प्यासे आए, मैंने आँका,


वातायन से मैंने झाँका


पीनेवालों का दल बाँका,


उत्कंठित स्वर से बोल उठा


कर दे पागल, भर दे प्याला!'


मैं मधुशाला की मधुबाला!

11

खुल द्वार गए मदिरालय के,


नारे लगते मेरी जय के


मिट चिह्न गए चिंता भय के,


हर ओर मचा है शोर यही,


ला-ला मदिरा ला-ला'!


मैं मधुशाला की मधुबाला!

12

हर एक तृप्ति का दास यहाँ,


पर एक बात है खास यहाँ,


पीने से बढ़ती प्यास यहाँ


सौभाग्य मगर मेरा देखो,


देने से बढ़ती है हाला!


मैं मधुशाला की मधुबाला!

13

चाहे जितना मैं दूँ हाला


चाहे जितना तू पी प्याला


चाहे जितना बन मतवाला,


सुन, भेद बताती हूँ अन्तिम,


यह शांत नही होगी ज्वाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

14

मधु कौन यहाँ पीने आता


है किसका प्यालों से नाता,


जग देख मुझे है मदमाता,


जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर


तनती मैं स्वप्नों का जाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला!

15

यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला


यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,


स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,


स्वप्नों की दुनिया में भूला 


फिरता मानव भोलाभाला।


मैं मधुशाला की मधुबाला! 


                                                                                         Harivansh Rai Bachchan

HARIVANSH RAI BACHCHAN

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था

भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा


स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था


ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को


एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम


का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम


प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा


थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम


वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली


एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई


कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई


आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती


थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई


वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना


पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा


वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा


एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर


भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा


अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही


ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए


पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए


दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर


एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए


वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे


खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना


कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना


नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका


किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना


जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से


पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है 


                                                                                                           Harivansh Rai Bachchan

Tuesday 3 May 2016

HINDI POMES MAITHILI SHARAN GUPT

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
                मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

Thursday 21 April 2016

RAHAT INDORI SHAYARI

लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है
लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है
इतना डरते है तो फिर घर से निकलते क्यों है
मैं ना जुगनू हूँ दिया हूँ ना  कोई तारा हूँ
रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ – आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं
मोड़ तो होता हैं जवानी का संभलने के लिये
और सब लोग यही आकर फिसलते क्यों हैं
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आँखों में पानी रखों, होंठो पे चिंगारी रखो
जिंदा रहना है तो तरकीबे बहुत सारी रखो
राह के पत्थर से बढ के, कुछ नहीं हैं 
मंजिलें रास्ते आवाज़ देते हैं, सफ़र जारी रखो
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सूरज, सितारे, चाँद मेरे साथ में रहें
जब तक तुम्हारे हाथ मेरे हाथ में रहें
शाखों से टूट जाए वो पत्ते नहीं हैं हम
आंधी से कोई कह दे की औकात में रहें
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हर एक हर्फ़ का अंदाज़ बदल रखा हैं
आज से हमने तेरा नाम ग़ज़ल रखा हैं
मैंने शाहों की मोहब्बत का भरम तोड़ दिया
मेरे कमरे में भी एक “ताजमहल” रखा हैं
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जवानिओं में जवानी को धुल करते हैं
जो लोग भूल नहीं करते, भूल करते हैं
अगर अनारकली हैं सबब बगावत का
सलीम हम तेरी शर्ते कबूल करते हैं
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इश्क ने गूथें थे जो गजरे नुकीले हो गए
तेरे हाथों में तो ये कंगन भी ढीले हो गए
फूल बेचारे अकेले रह गए है शाख पर
गाँव की सब तितलियों के हाथ पीले हो गए
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काम सब गेरज़रुरी हैं, जो सब करते हैं
और हम कुछ नहीं करते हैं, गजब करते हैं
आप की नज़रों मैं, सूरज की हैं जितनी अजमत
हम चरागों का भी, उतना ही अदब करते हैं
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जुबा तो खोल, नज़र तो मिला,जवाब तो दे
में कितनी बार लुटा हु, मुझे हिसाब तो दे
तेरे बदन की लिखावट में हैं उतार चढाव
में तुझको कैसे पढूंगा, मुझे किताब तो दे
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उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब
चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब


जिस दिन से तुम रूठीं,मुझ से, रूठे रूठे हैं

चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर, वह भी कहां अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े वपड़े, ज़ेवर वेवर सब
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इन्तेज़ामात  नए सिरे से संभाले जाएँ
जितने कमजर्फ हैं महफ़िल से निकाले जाएँ
मेरा घर आग की लपटों में छुपा हैं लेकिन
जब मज़ा हैं, तेरे आँगन में उजाला जाएँ
                                                
                                            राहत इन्दौरी