लिख रहा हूँ अंजाम जिसका कल आगाज़ आएगा;
मेरे लहू का हर एक क़तरा इंक़लाब लाएगा;
मैं रहूँ
या ना रहूँ पर ये वादा है तुमसे
मेरा कि;
मेरे बाद वतन पे मरने
वालों का सैलाब आएगा।
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दिल में अब यूँ तेरे
भूले हुये
ग़म आते हैं;
जैसे बिछड़े
हुये काबे
में सनम आते हैं।
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अजीब रंग का मौसम चला है कुछ दिन से;
नज़र पे बोझ है और दिल खफा है कुछ दिन से;
वो और थे जिसे तू जानता था बरसों
से;
मैं और हूँ जिसे तू मिल रहा है कुछ दिन से।
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बहुत ख़ास थे कभी नज़रों
में किसी
के हम भी;
मगर नज़रों
के तकाज़े
बदलने में देर कहाँ लगती
है।
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अपनी ज़िन्दगी
में मुझ को करीब समझना;
कोई ग़म आये तो उस ग़म में भी शरीक समझना;
दे देंगे
मुस्कुराहट आँसुओं
के बदले;
मगर हज़ारों
में मुझे
थोड़ा अज़ीज़
समझना।
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कुछ इशारे
थे जिन्हें
दुनिया समझ बैठे थे हम;
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे
थे हम;
रफ़्ता रफ़्ता
ग़ैर अपनी
ही नज़र
में हो गये;
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना
समझ बैठे
थे हम;
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी;
इश्क़ में अपने को दीवाना
समझ बैठे
थे हम;
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर
सोज़-ओ-दर्द;
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे
थे हम;
भूल बैठी
वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती;
उस को भी अपनी तबीयत
का समझ बैठे थे हम;
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़';
मेहरबाँ नामेहरबाँ
क्या क्या
समझ बैठे
थे हम।
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वो कभी मिल जाएं तो क्या कीजिये;
रात दिन सूरत को देखा
कीजिये;
चाँदनी रातों
में एक एक फूल को;
बेखुदी कहती
है सज़दा
कीजिये।
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कुछ मतलब
के लिए ढूँढते हैं मुझको;
बिन मतलब
जो आए तो क्या बात है;
कत्ल कर के तो सब ले जाएँगे दिल मेरा;
कोई बातों
से ले जाए तो क्या
बात है।
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तेरी यादें
भी न मेरे बचपन के खिलौने जैसी हैं;
तन्हा होता
हूँ तो इन्हें लेकर बैठ जाता हूँ।
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अपनी ज़िन्दगी
का अलग उसूल है;
प्यार की खातिर तो काँटे
भी कबूल
हैं;
हँस के चल दूँ काँच
के टुकड़ों
पर;
अगर तू कह दे ये मेरे बिछाये हुए फूल हैं।
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तुझ से अब और मोहब्बत
नहीं की जा सकती;
ख़ुद को इतनी भी अज़िय्यत
नहीं दी जा सकती;
जानते हैं कि यक़ीं टूट रहा है दिल पर;
फिर भी अब तर्क ये वहशत नहीं की जा सकती;
हब्स का शहर है और उस में किसी
भी सूरत;
साँस लेने
की सहूलत
नहीं दी जा सकती;
रौशनी के लिए दरवाज़ा खुला
रखना है;
शब से अब कोई इजाज़त
नहीं ली जा सकती;
इश्क़ ने हिज्र का आज़ार
तो दे रक्खा है;
इस से बढ़ कर तो रिआयत नहीं दी जा सकती।
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किस किस को बताएँगे जुदाई
का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ।
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उनसे मिलने
की जो सोचें अब वो ज़माना नहीं;
घर भी उनके कैसे जायें
अब तो कोई बहाना नहीं;
मुझे याद रखना तुम कहीं
भुला ना देना;
माना कि बरसों से तेरी
गली में आना-जाना नहीं।
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क्या गज़ब है उसकी ख़ामोशी;
मुझ से बातें हज़ार करती
है।
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एक मुद्दत
से मेरे
हाल से बेगाना है;
जाने ज़ालिम
ने किस बात का बुरा
माना है;
मैं जो ज़िद्दी हूँ तो वो भी कुछ कम नहीं;
मेरे कहने
पर कहाँ
उसने चले आना है।
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जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा;
बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब
उठा;
डूबी जाती
है ज़ब्त
की कश्ती;
दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब
उठा;
मरने वाले
फ़ना भी पर्दा है;
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा;
शाहिद-ए-मय की ख़ल्वतों
में पहुँच;
पर्दा-ए-नश्शा-ए-शराब
उठा;
हम तो आँखों का नूर खो बैठे;
उन के चेहरे से क्या
नक़ाब उठा;
होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ 'एहसान';
ला उठा शीशा-ए-शराब
उठा।
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यह हम ही जानते हैं जुदाई के मोड़ पर;
इस दिल का जो भी हाल तुझे देख कर हुआ।
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हसीनों ने हसीन बन कर गुनाह किया;
औरों को तो क्या हमको
भी तबाह
किया;
पेश किया
जब ग़ज़लों
में हमने
उनकी बेवफाई
को;
औरों ने तो क्या उन्होंने
भी वाह - वाह किया।
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ज़रा साहिल
पे आकर वो थोड़ा मुस्कुरा
देती;
भंवर घबरा
के खुद मुझ को किनारे
पर लगा देता;
वो ना आती मगर इतना
तो कह देती मैं आँऊगी;
सितारे, चाँद
सारा आसमान
राह में बिछा देता।
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यादों को भुलाने में कुछ देर तो लगती
है;
आँखों को सुलाने में कुछ देर तो लगती
है;
किसी शख्स
को भुला
देना इतना
आसान नहीं
होता;
दिल को समझाने में कुछ देर तो लगती
है।
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गुज़रे दिनों
की याद बरसती घटा लगे;
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे;
मेहमान बन के आये किसी
रोज़ अगर वो शख़्स;
उस रोज़
बिन सजाये
मेरा घर सजा लगे;
मैं इस लिये मनाता नहीं
वस्ल की ख़ुशी;
मेरे रक़ीब
की न मुझे बददुआ लगे;
वो क़हत
दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों;
जो मुस्कुरा
के बात करे आश्ना लगे;
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा 'क़तील';
मुझको सताये
कोई तो उस को बुरा
लगे।
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माँगने से मिल सकती नहीं
हमें एक भी ख़ुशी;
पाये हैं लाख रंज तमन्ना
किये बगैर।
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जब कोई ख्याल दिल से टकराता है;
दिल ना चाह कर भी खामोश रह जाता
है;
कोई सब कुछ कह कर प्यार जताता है;
तो कोई कुछ ना कह कर प्यार निभाता
है।
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अभी मशरूफ
हूँ काफी
कभी फुर्सत
में सोचूंगा;
कि तुझको
याद रखने
में मैं क्या - क्या भूल जाता हूँ।
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तुम्हें भूले
पर तेरी
यादों को ना भुला पाये;
सारा संसार
जीत लिया
बस एक तुम से ना हम जीत पाये;
तेरी यादों
में ऐसे खो गए हम कि किसी को याद ना कर पाये;
तुमने मुझे
किया तनहा
इस कदर कि अब तक किसी और के ना हम हो पाये।
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किस को क़ातिल मैं कहूँ
किस को मसीहा समझूँ;
सब यहाँ
दोस्त ही बैठे हैं किसे
क्या समझूँ
वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था;
अब हक़ीक़त
नज़र आए तो उसे क्या
समझूँ;
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे;
ऐसे माहौल
में अब किस को पराया समझूँ;
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी;
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे
अपना समझूँ।
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वो चांदनी
का बदन ख़ुशबुओं का साया
है;
बहुत अज़ीज़
हमें है मगर पराया है;
उतर भी आओ कभी आसमाँ
के ज़ीने
से;
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे
लिये बनाया
है।
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क्या कहें
कुछ भी कहा नहीं जाता;
दर्द मिलता
है पर सहा नहीं जाता;
हो गयी है मोहब्बत आपसे
इस कदर;
कि अब तो बिन देखे
आप को जिया नहीं जाता।
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तेरे हर ग़म को अपनी
रूह में उतार लूँ;
ज़िन्दगी अपनी
तेरी चाहत
में संवार
लूँ;
मुलाक़ात हो तुझसे कुछ इस तरह मेरी;
सारी उम्र
बस एक मुलाक़ात में गुज़ार
लूँ।
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पढ़ने वालों
की कमी हो गयी है आज इस ज़माने
में;
नहीं तो गिरता हुआ एक-एक आँसू पूरी
किताब है।
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देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़;
घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़;
ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत
में रखूँगा
बरपा;
ऐ जुनूँ
देख मेरे
पाँव की ज़ंजीर न तोड़;
देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे;
इस में आता है नज़र
आलम-ए-तस्वीर न तोड़;
ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे है;
रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना
को गुल-गीर न तोड़;
अपने बिस्मिल
से ये कहता था दम-ए-नज़ा वो शोख़;
था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़;
सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह;
खींच कर देख मेरे सीने
से तू तीर न तोड़।
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हम उस से थोड़ी दूरी
पर हमेशा
रुक से जाते हैं;
न जाने
उस से मिलने का इरादा
कैसा लगता
है;
मैं धीरे
धीरे उन का दुश्मन-ए-जाँ बनता जाता
हूँ;
वो आँखें
कितनी क़ातिल
हैं वो चेहरा कैसा लगता
है।
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आँखों से आँखें मिलाकर तो देखो;
हमारे दिल से दिल मिलाकर
तो देखो;
सारे जहान
की खुशियाँ
तेरे दामन
में रख देंगे;
हमारे प्यार
पर ज़रा ऐतबार करके तो देखो।
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रोज साहिल
से समंदर
का नज़ारा
न करो;
अपनी सूरत
को शबो-रोज निहारा न करो;
आओ देखो
मेरी नज़रों
में उतर कर ख़ुद को;
आइना हूँ मैं तेरा मुझसे
किनारा न करो।
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ना जाने
कब वो हसीन रात होगी;
जब उनकी
निगाहें हमारी
निगाहों के साथ होंगी;
बैठे हैं हम उस रात के इंतज़ार में;
जब उनके
होंठों की सुर्खियां हमारे होंठों
के साथ होंगी।
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कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं;
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं;
मुझको ये भी नहीं मालूम
कि जाना
है कहाँ;
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं;
आँसुओं और शराबों में गुजारी
है हयात;
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं;
जाने क्या
टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा;
बिखरे-बिखरे
हैं खयालात
मुझे होश नहीं।
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मोहब्बत एक दम दुख का मुदावा कर नहीं
देती;
ये तितली
बैठती है ज़ख़्म पर आहिस्ता
आहिस्ता।
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मेरी चाहत
को अपनी
मोहब्बत बना के देख;
मेरी हँसी
को अपने
होंठो पे सज़ा के देख;
ये मोहब्बत
तो हसीन
तोहफा है एक;
कभी मोहब्बत
को मोहब्बत की तरह निभा कर तो देख।
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ना हम रहे दिल लगाने
के काबिल;
ना दिल रहा ग़म उठाने
के काबिल;
लगे उसकी
यादों के जो ज़ख़्म दिल पर;
ना छोड़ा
उसने फिर मुस्कुराने के काबिल।
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दो मशहूर
शायरों के अपने-अपने अंदाज…
पहले मिर्ज़ा
गालिब...............
उड़ने दे इन परिंदों को आज़ाद फिजां में ‘गालिब’
जो तेरे
अपने होंगे
वो लौट आएँगे…..................