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Thursday 5 May 2016

HARIVANSH RAI BACHCHAN

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था

भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा


स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था


ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को


एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम


का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम


प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा


थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम


वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली


एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई


कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई


आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती


थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई


वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना


पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा


वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा


एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर


भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा


अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही


ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए


पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए


दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर


एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए


वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे


खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना


कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना


नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका


किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना


जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से


पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है 


                                                                                                           Harivansh Rai Bachchan

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